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अबधिज्ञानी के जानने का जितना क्षेत्र है उतना ही अवधिदर्शनी के देखने का क्षेत्र है। अतः अवधिदर्शन से नियत अवधि तक के क्षेत्र के रूपी द्रव्यों को सामान्यरूप से अवधिदर्शन से देखना, और उन्हें ही विशेषरूप से अवधिज्ञान से जानने का कार्य होता हैं । नरक के नारकी जो विभंगज्ञानी है वे तथा चारों गति के अवधिज्ञानी इस अवधिदर्शन के मालिक है।
__ अवधिज्ञान के जो ६ भेद हैं, बे ही सभी भेद अवधिदर्शन के हैं। तीर्थंकर परमात्मा का जीव पूर्वजन्म से ही यह गुण लेकर वर्तमान भव में आते हैं।
अबधिज्ञान-अवधिदर्शन
भवप्रत्ययिक
गणप्रत्ययिक
गुणप्रत्ययिक
देवता को नारकी को मनुष्य को
तिर्यंच को अवधिज्ञानी-अवधिदर्शनी-जघन्य से अनन्तरूपी द्रव्यों को, तथा उत्कृष्ट से सर्वरूपी द्रव्यों को देखते हैं । क्षेत्र से जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग, तथा उत्कृष्ट से देखते-जानते हैं । काल से जघन्य-आवलि के असंख्यातवें भाग के जितने काल के अतीत, अनागत पर्यायों को देखते हैं। भाव से-एक-एक द्रव्य के जघन्य से चार भाव तथा उत्कृष्ट से असंख्य पर्यायों को अवधिदर्शन-ज्ञान से जानते-देखते हैं । इसका निराकार सामान्य उपयोग अवधिदर्शन तथा साकार (विशेष) उपयोग को अवधिज्ञान कहते हैं ऐसा श्री नन्दिसूत्र में कहा है। मिथ्यादृष्टि जीव को अवधिविभंग रूप में होता है । सम्यक्त्वी अवधिज्ञान वाले को अवधिदर्शन होता है। .
इस प्रकार के ऐसे अवधिदर्शन गुण पर आये हुये दर्शनावरणीय कर्म के आवरण को अवधिदर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । यह आत्मा की जघन्य-उत्कृष्ट से द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा प्रकार के रूपी द्रव्यों को देखने की शक्ति को आवरित-आच्छादित कर देता है और आत्मा का अवधि दर्शन-ज्ञान गुणढक-दब जाता है । क्षायोपशमिक भाव से यह उत्पन्न होता हैं । यह वीरविजयकृत अवधिदर्शनावरणीय पूजा की ढाल का भाव है । आत्मा को बिना इन्द्रियों की मदद से सीधे प्रत्यक्षरूप से रूपी पदार्थों का निराकार-सामान्य बोध होना यह अवधिदर्शन उपयोग तथा साकार रूप से विशेष बोध होना यह अवधिज्ञान कहलाता है । अवधिदर्शनगुण अवधिदर्शनावरणीय कर्म के आवरण से दबता है, और अवधिज्ञानगुण अवधिज्ञानावरणीय कर्म के आवरण से दबता है ।
कर्म की गति न्यारी