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सका, और नैगमनयादि रूप एकांत दर्शन से संसार में भटकता रहा, मात्र हाथों से पानी में मथन करता रहा, परन्तु कोई सार-नवनीत प्राप्त नहीं हुआ । अब पूर्ण रूप से आपका दर्शन प्राप्त करने के लिए आपके दर्शन एवं भक्ति कर रहा हूँ, जिससे दर्शनावरणीयकर्म दूर हों, और आपका दर्शन पूर्ण रूप से कर पाऊं । जैसे जलकांत मणि से जल दूर होता है । दूसरी ढाल में
तुज मूरति मोहनगारी, रसिया तुज मूरति मोहनगारी, .. द्रव्यह गुण परजाय ने मुद्रा, चउ गुण प्रतिमा प्यारी। नयगम भंग प्रमाणे न निरखो, कुमति कदाग्रहधारी ॥
वीरबिजयजी महाराज ने पूजा की ढाल में भक्ति के माध्यम से कर्मशास्त्र की अद्भुत बातें बताई हैं। वे उपरोक्त अंश में कहते हैं कि-हे ज्ञानीप्रभु ! आपकी मूर्ति मन मोहने वाली है। सभी के लिए अत्यन्त मनमोहक है । द्रव्य, गुण, पर्याय और मुद्रा (आकृति) इन चार प्रकारों से अत्यन्त गुणवान आपकी प्रतिमा बड़ी प्यारी लगती है, दिल में भक्ति के भाव को उभराती है, परन्तु कुमति-कदाग्रह वाले नय, गम, भंग (भेद) प्रमाणे आदि से वास्तव में देख नहीं पाते हैं, अर्थात् जो दर्शन भी नहीं कर पाते हैं और पहचान भी नहीं पाते हैं, वे मूढ-गंवार कर्म बांधते हैं । इस तरह वीरविजय महाराज ने पूजा की ढाल में भक्ति के माध्यम से कई भाव भरे है । कर्मशास्त्र के सैद्धांतिक विषयों में उनकी विचारधारा को आगे और देखेंगे।
अवधिज्ञान और अवधिदर्शनलक्षण अवधिदर्शनावरणक्षयोपशमादिवशाद् विशेष-ग्रहणवै मुख्येनरूपिद्रव्यविषयक सामान्यावबोधरूपत्वमवधिदर्शनस्य लक्षणम् ॥
आर्हत् दर्शन दीपिका में पू० मंगलविजयजी महाराज ने अवधिदर्शन का लक्षण करते हुए बताया है कि अवधिदर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला विशेष को ग्रहण न करते हुए रूपिद्रव्यविषयक सामान्य बोध को अवधिदर्शन कहते हैं।
ज्ञान और दर्शन ये दोनों सहवर्ती हैं। क्रमभावी है । दर्शन भी एक प्रकार का ज्ञान ही है। वस्तु का सामान्यकाररूप- निराकाररूप जो बोध होता है वह दर्शन है और वही जब साकार-विशेषरूप होता है तब ज्ञान बन जाता है । अतः
कर्म की गति न्यारी