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गंध रसादि गुण जीव द्रव्य में नहीं है । अतः दोनों पृथक-पृथक गुणवान् स्वतन्त्र द्रव्य हैं । जीव के ज्ञानादि गुण अजीव द्रव्य में संक्रमित नहीं होते हैं । वैसे ही अजीव द्रव्य के वर्णादि गुण भी जीव में संक्रमित नहीं होते है । कोई भी अजीव एवं पुद्गल पदार्थ ज्ञान-दर्शनादि गुणवान् कभी भी नहीं होगा। "न भूतो न भविष्यति अर्थात कोई भी पुद्गल पदार्थ भूतकाल में ज्ञानादि गुणवान नहीं हुआ था, और भविष्य में कभी भी नहीं होगा । जहाँ-जहां ज्ञान, दर्शनादि गुणों की बात आएगी, वहां जीव द्रव्य के ही गुण समझने चाहिए ।
द्रव्य श्रयि गुण "गुण-पर्यायवद् द्रव्यम् ।" यह सूत्र पूज्य उमास्वाति महाराज ने तत्त्वाथाधिगम सूत्र में देकर द्रव्य का स्वरूप कैसा होता है, यह बताया है । गुण और पर्याय वाला ही द्रव्य होता है, अर्थात् द्रव्य-गुण और पर्यायों का समूह पिण्ड है । गुण रहित द्रव्य स्वतन्त्र नहीं रहता है, उसी तरह द्रव्य रहित गुण भी स्वतन्त्र नहीं रहता है । चूंकि गुण द्रव्याश्रयि ही होते हैं इसलिए द्रव्य को छोड़ कर गुण नहीं रह सकते हैं । द्रव्य गुणों का आधार स्थान है कि उसमें आधेय रूप से गुण रहते हैं । अत: द्रव्य से भिन्न गुण के अस्तित्व की स्वतन्त्र कल्पना करना असम्भव है । वैसे ही द्रव्य की सर्वथा गुण रहित कल्पना करनी असम्भव है । अतः गुण एवं पर्याय वाला द्रव्य कहलाता है, और द्रव्य गुण पर्याय से युक्त होता है।
___ उपरोक्त सिद्धान्त के आधार पर श्लोक में दर्शाए गए ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि जो गुण हैं उनका आश्रयि एवं आधारभूत द्रव्य जीव है । जीव द्रव्य और ज्ञानादि गुण है । जीव द्रव्य को छोड़कर ज्ञान-दर्शनादि गुण का अन्यत्र कहीं भी रहना सम्भव नहीं है । जिस तरह ज्ञान-दर्शनादि गुण जीव द्रव्य को छोड़कर स्वतन्त्र रूप से कहीं भी नहीं रह सकते हैं, उसी तरह जीव द्रव्य भी ज्ञानादि गुणों को छोड़कर उनके बिना अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रख सकता है । अतः ज्ञानदर्शनादि गुण जीव द्रव्य में रहते हैं और जीव द्रव्य ज्ञान-दर्शनादि गुणवान होता है । इस लिए जीव द्रव्य को समझने के लिए तदाश्रयि ज्ञानादि गुणों को पहले समझना अनिवार्य होता है।
कर्म की गति न्यारी