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ज्ञान दर्शनादि गुणों का स्वरूप
गुण सार्थक होते हैं, अर्थात् गुण स्वयं अपना अर्थ रखते हैं। अतः ज्ञानदर्शनादि गुणों का अपना निश्चित अर्थ है। यहां ज्ञान का अर्थ है-जानना, दर्शन का अर्थ है देखना, चारित्र का अर्थ है अपने मूलभूत स्व-स्वरूप में रहना, तप का अर्थ है आहारादि पर-पुद्गल पदार्थ से अलिप्त रहना, वीर्य का अर्थ है स्वयं जीव का अनन्त शक्तिमान् रहना, उपयोग का अर्थ है जीव का ज्ञान-दर्शनादि चेतनामय रहना । इस तरह श्लोकगत् छ: ही गुण अर्थवान्-सार्थक है। जीव द्रव्य ज्ञानदर्शनादि गुणों से अभिन्न है, अतः ये सभी अर्थ जीव द्रव्य के कहलाएंगे । जीव द्रव्य सक्रिय है, अतः जीव अपनी सारी क्रिया अपने गुणों के आधार पर ही करता है । स्व गुणानुरूप क्रिया करना द्रव्य का कार्य है । कार्य क्रिया से जन्य होता है । इसलिए जीव का कार्य अपने गुणों की क्रिया के आधार पर ही होगा । गुण ज्ञानदर्शनादि है, अतः उनकी क्रिया का करने वाला कर्ता जीव द्रव्य है। अतः जानना, देखना आदि जीव का कार्य है । व्याकरण के अनुसार क्रिया करने वाला कर्ता होता है । क्रिया हो तो निश्चित ही उसका कर्ता होता है। क्योंकि बिना कर्ता के क्रिया नहीं हो सकती है । जानना, देखना आदि क्रिया है अतः उनका कर्ता तद्गुणवान् जीव द्रव्य है । अतः जानना. देखना आदि जीव का मूलभूत स्वभाव-कार्य है । जीव के गुण क्रिया कार्य एवं स्वभावादि ज्ञान-दर्शनादि रूप होने से वह ज्ञाता द्रष्टा कहलाता है।
ज्ञाता-द्रष्टा जीव
ज्ञान गुण है । ज्ञान गुण की क्रिया “जानना" है । इस "जानने" की क्रिया का कर्ता -...'ज्ञाता" आत्मा है । दर्शन गुण है। देखना यह क्रिया हैं । देखने की क्रिया का कार्य “दर्शन" करने वाला कर्ता--''द्रष्टा" जीव है । अतः आत्मा मुख्य रूप से ज्ञाता-द्रष्टा है । ज्ञाता-द्रष्टा भाव आत्मा का प्रमुख स्वरूप है । अजीव द्रव्य में न तो ये गुण हैं और न ही यह क्रिया है । अतः पुद्गल एवं अजीव द्रव्यादि पदार्थ ज्ञाता-द्रष्टा भाववान नहीं है ।
सवाल यह खड़ा होता है कि-व्यवहार में लोग कहते हैं कि-आंख देखती है, कान सुनता है, मन जानता है, जीभ चखती है; नाक सूंघता है, त्वचा स्पर्श करती है, इत्यादि । तो फिर जीव देखता है, जानता है, यह कैसे सही हो सकता है ? व्यवहार के क्षेत्र में लोग ऐसी अनुभूति करते हैं, परन्तु आत्मा देखती है,
कर्म की गति न्यारी