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छठा प्रवचन-६
"दर्शन और दर्शनावरणीय कर्म"
परम पूजनीय, परम आदरणीय-बन्दनीय, नमस्करणीय, परमपिता परमात्मा 'हावीरस्वामी के चरणारविन्द में अनन्तशः नमस्कार पूर्वक"".."
नाणं च सणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्खणं ॥
(उत्तरा. अ. २८. श्लो. ११)
- पवित्र जिनागमः श्री उत्तराध्ययन सूत्र के मोक्ष मार्ग गति नामक २८वें यन के प्रस्तुत श्लोक में आत्मा का लक्षण बताते हुए फरमाया है कि-ज्ञान, . चारित्र, तप, वीर्य तथा उपयोग ये जीव के प्रमुख लक्षण हैं । लक्षण भेदक है। अत: दो के बीच में भेद दर्शाने की तथा अपना स्वरूप बताने का काम
लक्षण वस्तु के स्वरूप को प्रकट करता है । समस्त बह्माण्ड में मूलभूत द्रव्य है । १. जीव २. अजीव ।
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द्रव्य
जीव (चेतन)
अजीव (जड़)
लक्षण भेद से ही जीव और अजीव भिन्न-भिन्न कहलाते हैं । वस्तुगत
गुणों को लेकर ही लक्षण बनता है, अतः पदार्थ के मूलभूत गुण ही एक: भेदक होते हैं । जीव, द्रव्य, ज्ञान, दर्शन आदि गुणवान है, और अजीव नि, दर्शन आदि रहित वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादि गुणवान हैं । अतः जीव द्रव्य , दर्शन आदि गुण अजीव द्रव्य में नहीं है । उसी तरह अजीव द्रव्य के वर्ण,
गति न्यारी