________________
जा रहे थे। रास्ते में एक बावड़ी आई । उत्त बावड़ी में एक मेंढक रहता था । रथयात्रा में जा रहे लोगों के मुंह से निकलती जवघोष की ध्वनियां सुनकर मेंढक की सुषुप्त आत्मा जागृत हो गई । पूर्वजन्म में नंदमणीकार शेठ के भव में की हुई धर्माराधना स्मृतिपटल पर उभर आई । इस प्रक्रिया से पूर्व जन्म का जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । अतः दर्शन की तीव्र भावना से वहे मेंढक भी बावड़ी से निकल कर श्रेणिक राजा के जुलुस के साथ चलने लगा । श्रेणिक राजा के घुडस्वार सैनिकों ने.. दयावश उस मेंढक को लेजाकर बावड़ी में रख दिया । परन्तु जिसकी आत्मा प्रबल हुई है उसको कौन रोक सकता है ? मेंढक पुनः निकलकर आया और सैनिकों ने उसे दया भाव से, कि यह हमारे बीच कहीं मर न जाय ऐसा सोचकर, पुनः बावड़ी में रख दिया । परन्तु दर्शन की प्रबल भावना से मेंढक पुनः आया, और कूदता हुआ साथ में चलने लगा । इतने में योगानुयोग मेंढक का कूदना और घोड़सवार के घोड़े का पैर उस पर पड़ना, और देखते ही देखते मेंढक के शरीर के दो टुकड़े हो गये, उसके प्राण पंखेरू उड़ गये ।
इधर श्रेणिक राजा समवसरण में पहुंचे और मेंढक का जीव दर्शन की प्रबल भावना में मरकर स्वर्ग में देव बना । वहां भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान से अपना पूर्व जन्म देखकर वह देव दर्शन की इच्छा को पूर्ण करने के लिए सीधे भगवान, महावीर के समवसरण में आया । " दर्शनं स्वर्ग सोपानम्” अर्थात् दर्शन स्वर्ग प्राप्ति के लिए सीढ़ी है यह बात सिद्ध होती है ।
मयणासुन्दरी और श्रीपाल के दर्शन
महासती मंयणासुन्दरी अपने कुष्ठ रोगी पतिदेव उंबरराणा को लेकर गुरुदेव मुनिचन्द्रसूरी के चरणों में प्रवचन श्रवण करने गई । गुरूदेव से शासन प्रभावना के उपाय की विधि जानी । मुनिचन्द्रसूरी आचार्य देव ने पास में ही स्थित आदिनाथ भगवान के दर्शन-पूजन एवं नवपदमय सिद्धचक्र बृहद् यन्त्र की भक्ति तथा आयंबिल की ओली की आराधना बताई । प्रातः काल ही मयणा सुन्दरी अपने पति चैत्यालय (मन्दिर) में प्रभुदर्शन करने गई । मयणासुन्दरी ने अद्भुत गुण-स्तुति की। हुआ कि
को साथ लेकर जिन अत्यंत उल्लसित भक्ति भाव से महासती देखते ही देखते ऐसा अद्भुत चमत्कार
कुसुममाल निज कंठ थी रे लो प्रभुपसाय सह देखता रे लो.
हाथ तण फल दोध रे । उबरें ए बेउ लीध रे ।।
कर्म की गति न्यारी