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महाराज ।” प्रभु की कृपा से दुर्लभ दर्शन भी नन्दन स्वामी के स्तवन में आनन्दधनजी की चिन्तनीय एवं मननीय है ।
सुलभ हो जाते हैं । इस तरह अभिदर्शन विषयक अभिव्यक्तिं वास्तव में
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निजानंद अनुभवी पूज्य देवचन्द्रजी महाराज की आनन्दधनजी की तरह पद्मप्रभु स्वामी के स्तवन में – “ तुज दरिसण मुज वालहुं रे लाल, दरिसण शुद्ध पवित्त रे" इन शब्दों का प्रयोग करके भावों की अभिव्यक्ति में कहते हैं कि हे प्रभु ! तेरा दर्शन मुझे प्यारा है । यह दर्शन शुद्ध एवं पवित्र है । यही दर्शन तेरे-मेरे बीच सेतु है । आत्म-सिद्धि के लिए यही शुद्ध नियामक हेतु है । हे प्रभु ! तेरा नाम भी मेरे लिए इस भवसागर में सेतु है । जिन दर्शन के माध्यम से समयग्दर्शन की प्राप्ति के लक्ष्य को लेकर पूज्य देवचन्द्रजी महाराज के प्रस्तुत पद्मप्रभु के स्तवन में दर्शन की सभी नयों से व्याख्या की गई है । " प्रमाणनयंरधिगमः” प्रमाणनय तत्त्वालोक ग्रंथ में तार्किक शिरोमणि पूज्य वादिदेवसूरि महाराज ने प्रमाण और नयों से ज्ञान सही होता है, ऐसा कहा है । सही अर्थ में इन महापुरुषों ने "दर्शन" की दार्शनिक धरातल पर अद्भुत उपयोगिता सिद्ध की है ।
"कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने प्रभुदर्शन को माध्यम बनाकर अन्ययोग व्यवद्छेद द्वात्रिंशिका एवं अयोग व्यवद्छेद द्वात्रिंशिका नामक अद्भुत दार्शनिक ग्रन्थ लिखे हैं । सिर्फ ३२ श्लोकों में प्रभु स्तवन के माध्यम से कितने सहजभाव से गम्भीर दार्शनिक चर्चा का महासागर खड़ा कर दिया है । यही उनकी गरिमा एवं विशेषता है । ठीक उसी तरह सत्रहवीं शताब्दी के महान् दार्शनिक सरस्वती पुत्र तुल्य महा महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने " महावीर स्तव प्रकरण" ग्रन्थ लिखा है । नामकरण की शब्द रचना को देखते हुए ऐसा लगता है कि कितने सरल एवं आसान शब्द हैं ? परन्तु प्रभुदर्शन एवं स्तवना के माध्यम से उपाध्यायजी ने दार्शनिक जगत की खंडन-मंडनात्मक विवेचना करते हुए सभी दर्शनों की खबर ले ली है । इतनी सहज और स्वाभाविक भावभंगिमा से एक तरफ प्रभु के गुणगान की स्तवना, और दूसरी तरफ दार्शनिक चर्चा की सर्वोपरिता एवं चरम सीमा का दर्शन कराया है । यहाँ न्याय खंनखंडखाद्य नामक अभूतपूर्व एवं अद्भुत ग्रन्थ है ।
दर्शन के चमत्कार -
(1) मेंढक की दर्शन भावना - राजगृही नगरी के सम्राट श्रेणिक महाराजा एक बार अपनी चतुरंगी सेना एवं परिवारजनों के साथ श्री महावीर प्रभु के दर्शनार्थ
कर्म की गति न्यारी
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