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________________ के साथ ही करे । पूज्य उपाध्यायजी यशोविजयजी महाराज ने ज्ञानसार अष्टक में "पूर्णता" नामक अष्टक में पूर्णानन्दी, परमात्मा के स्वरूप का जो अद्भुत वर्णन किया है, उसे पढ़कर पूर्ण की पूर्णता का पूर्ण-सम्पूर्ण स्वरूप जानकर हम अपनी अपूर्णता का विचार करें । तभी पूर्ण की पूर्णता और अपूर्ण (अपनी) की अपूर्णता को देख सकेगा । पूर्ण में पूर्ण की पूर्णता, अपूर्ण में अपूर्णता का ज्ञान यह दर्शन करा रहा है । अतः प्रभुदर्शन की प्रक्रिया में स्व-आत्म दर्शन करना और स्वात्मदर्गन करके स्वआत्मा की क्षतियां दूर करने की कोशिश करना यह दर्शन की फलश्रुति है। ऐसे दर्शन का अनुपम एवं अद्भुत वर्णन अवधृत योगी पूज्य आनन्दधनजी महाराज ने अपनी चौबीसी में विशेष रूप से अभिनन्दनस्वामी के स्तवन में किया है। उनकी शब्द रचना इस प्रकार है अभिनन्दन जिन ! दरिसण तरसीए, दरसण दुरलम देव । । मत मत भेदे रे जो जइ पूछीए, सह थापे अहमेव ॥ __ अभिनन्दन जिन ! दरिसण तरसीए ।।१।। सामान्ये करी दरिसण वीहिलं, निरणय सकल विशेष । । मद में घेर्यो रे अंधो किम करे, रवि-शशि-रूप विलेख ॥२॥ हेतु विवादे हो चित्त धरी जोइए, अति दुरगम नयवाद । आगमवादे हो गुरुगम को नहीं, एसबलो विषवाद ॥३॥ घाती डूंगर आडा अति घणा, तुज दरिसण जगनाथ । धीठाई करी मारग संचरू, संगु कोइ न साथ ॥४॥ दरिसण दरिसण रटतो जो फिरू, तो रणरोझ समान । जेहने पिपासा हो अमृतपाननी, किम भांजे विषपान ॥५॥ तरस न आवे हो मरणजीवन तणी, सीजे जो दरिसण क ज । दरिसण दुरलभ सुलभ कृपा थकी, 'आनंदधन' महाराज ॥६।। संक्षिप्त सारांश यह है कि-आनन्दघन जैसे योगी दर्शन के लिए तड़प रहे हैं । उनकी चाहना चातके की स्वाति नक्षत्र की बंद की चाहना जैसी है । प्रभुदर्शन रो सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की दिशा में वे रण के रोझ की तरह दौड़ रहें है । अमृतपान की इच्छा वाले को विषपान से संतोष कैसे हो सकता है ? "दर्शन" को अमृतपान मानते हुए आनंदघन योगी दुर्लभ दर्शन को सुलभ करने के लिए प्रभु कृपा की चाहना रखते हैं। इसलिए वे कहते हैं कि “६रिसण दुर्लभ सुलभ कृपा थकी आनंदघन कर्म की गति न्यारी
SR No.002480
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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