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सुणो शान्ति जिणंद सोभागी हुं तो थयो छु तुज गुणरागी; तुमे निरागी भगवंत, जोतां केम मलशे तंत ॥१॥ हुं तो क्रोध कषाय नो भरियो, तं तो उपशम रसनो वरीयो; हुं तो अज्ञाते आवरीयो, तुं तो केवल कमला वरीयो ॥सु०॥२॥ . . हुं तो विषया रसनो आशी, तें तो विषया कीधी निराशी; हुं तो कर्म भारे भर्यो, तें तो प्रभु भार उतार्यों ॥सु०॥३॥ हुं तो मोह तणे वश पडीयो, त तो सघला मोहने नडीयो; हुं तो भव समुद्र मां लुतो, तुं तो शिव मन्दिर मां पहोतो ॥सु०॥४॥ मारे जन्म मरण नो जोरो, तें तो तोड्यो तेहनो दोरो। .. मारो पासो न मेले राग, प्रभुजी थयां वीतराय ॥सु०॥५॥ मुने मायाए मुक्यो पाशी. तुं तो निरबंधन अविनाशी । हुं तो समकित थी अधुरो, तं तो सकरथ पदारथे पूरो ॥सु०।।६।। म्हारे छो तुहि प्रभु एक, त्हारे मुज सरीख्या अनेक । हुं तो मन थी नमक मान, तुं तो मान रहित भगवान ॥सु०॥७॥ मारू कींधु ते शं न थाय, त तो रंक ने करे राय; एक को मुज महेरबानी, म्हारो मुजरो लेओ मानी ।।सु०॥८॥ एक बार जो नजरे निरखो, तो करो मुजने तु सरीखो। . जो सेवक तुम सरीखो थाशे, तो गुण तमार। गाशे ॥सु०॥९॥ भवो भव तुज चरणोनी सेवा, हुं तो नाग देवाधिदेवा;
सामुजुओ ने सेवक जाणी, एवी उदयरत्ननी वाणी ।।सु०॥१०॥ • इस तरह उदयरत्नजी महाराज ने मैं कैसा हूँ ? और भगवान कैसे हैं ? मेरे में क्या है ? और भगवान में क्या है ? प्रभु में कैसे गुण कितने प्रमाण में हैं. और ठीक विपरीत मेरे में कैसे दोष-दुगण कितने प्रमाण में हैं ? इस प्रकार की तुलना का चित्र खड़ा किया है । सही बात है कि अपूर्ण अपनी तुलना अपूर्ण से करके अपनी पूर्णता को नहीं देख पाता है। इसलिए अपूर्ण को चाहिए कि वह अपनी तुलना पूर्ण
कर्म की गति न्यारी