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देवचंद्रजी महाराज ने स्तवन में कहा है कि प्रभु के गुणों को देखते हुए प्रभु के दर्शन करने वाले श्रेष्ठ दर्शक हैं । प्रभु के गुणों को देखते हुए जो भक्ति-स्तुतिस्तवना करता है, वही दर्शन की विशुद्धि को प्राप्त करता हैं, अर्थात् शुद्ध दर्शन करता है, तथा ज्ञान, चरित्र, तप, वीर्य उल्लास से कर्मों को जीतकर मुक्तिधाम-मोक्ष को प्राप्त करता है । इस तरह शुद्ध दर्शन को उन्होंने मोक्ष प्राप्ति का कारण बताया है ।
घर संसार में मनुष्य जीवन की प्रतिदिन की दैनिक तो जड़ और मनुष्य चेतन है । चेतन जड़ के सामने
प्रतिदिन दर्पण में क्रिया बन चुकी है ।
है ? उत्तर स्पष्ट ही है कि वह दर्पण में अपनी क्षति - कमी देखता है । मेरे बाल सही हैं या नहीं ? मेरे कपड़े व्यवस्थित है या नहीं ? काजल सही लगी हैं या नहीं ? बिंदी सही लगी है या नहीं ? इत्यादि अपनी क्षति देखकर वह उ हें सुधार लेता है । इस तरह दर्पण का उपयोग मनुष्य के जीवन में एक विशेष महत्त्व रखता है । ठीक बैसे ही धार्मिक जीवन में प्रभु दर्शन का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान हैं । " शब्द चिन्तामणि " नामक कोश में दर्शन शब्द का भिन्न-भिन्न अर्थ करते हुए दर्पण अर्थ भी किया है और देखना, दृष्टि आदि अर्थ भी है । दर्शन की प्रक्रिया में प्रभु की प्रतिमा को यदि हम दर्पण मानें तो इस प्रतिमारूपी दर्पण में हम अपना प्रतिबिम्ब देख सकते हैं । यह तो उपमा रूपक से बात हो रही है । काँच के दर्पण में वाह्य रूप-रंग दिखायी देता है, परन्तु यहां जिन प्रतिमारूपी दर्पण में आत्मा का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है | दर्पण बाह्य क्षति की तरह जिन प्रतिमा में हम आत्मिक दोष- दुगण रूपी क्षतिओं को देख सकते हैं । परमात्मा में स्व आत्मदर्शन करने की यह एक अद्भुत प्रक्रिया हैं ।
परमात्मा सर्वगुण सम्पन्न एवं सर्व दोष दुर्गुण रहित पूर्ण सम्पूर्ण सर्वज्ञ - सर्वदर्शी एवं वितरागी है । उसमें किसी भी प्रकार की कमी या क्षति की सम्भावना ही नहीं है, जबकि हमारी आत्मा किसी भी गुण से पूर्ण सम्पूर्ण नहीं है । हम अपूर्ण - अल्पज्ञ - रागीद्वेषी आदि सर्व दोष दुर्गण से भरपूर हैं । इसी बात को उदयरत्नजी महाराज ने पामरात्मा और परमात्मा की तुलना करते हुए शान्तिनाथ भगवान के स्तवन में
इस तरह कहा है कि
प्रभु दर्शन की क्रिया
मुंह देखता है । यह हर व्यक्ति के प्रश्न यह उठता है कि -दर्पण और क्यों देखने जाता
क्या
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कर्म की गति न्यारी