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कहते हैं जिसमें इन्द्रियों के देखने-सुनने आदि व्यवहार के पश्चात भी आत्मा को कर्मबंध न हो, और कर्म की निर्जरा हो । शुभाश्रव, पुण्य, संवर, निर्जरा हो, वहां तक इन्द्रियों का व्यवहार अच्छा कहलाएगा। परन्तु प्रायः ऐसा देखा जाता है कि अधिकांश जीव पुण्याश्रव-संवर-निर्जरा के बजाय अशुभाश्रव, पाप एवं कर्मबंध की प्रवृत्तियों में ज्यादा रचे पचे हैं । अतः अपना न देखकर पराये का अनाचार-दुराचार आदि को ज्यादा देखते हैं । यह इन्द्रियों का भारी दुरुपयोग हैं । इन्द्रियाँ और मन से ही सारा व्यवहार चलता है ।
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इन्द्रियों के दुरुपयोग की सजा
सभी इन्द्रियाँ जड़ हैं, और मन भी जड है । एक मात्र आत्मा ही चेतन है। यदि आत्मो ने इन्द्रियों के व्यवहार का दुरुपयोग करके कर्म बांधे, पाप किये तो, सजा आत्मा को ही भुगतनी पड़ेगी । इन्द्रियाँ तो जड़ हैं और मन भी जड़ है । वे जड़ होने से कोई क्रिया नहीं करती हैं । क्रिया करने वाला कर्ता तो मात्र आत्मा ही है। अतः इन्द्रियों को और मन को कोई कर्म बंध नहीं होता है; परन्तु इन्द्रियों और मन से कर्म बंध होता है । अतः कर्म की सजा, पाप की सजा इन्द्रियाँ नहीं भुगतती है आत्मा ही भुगतती है। कर्म के घर में इन्द्रियों के दुरुपयोग रूप पाप की सजा बड़ी भारी, विचित्र है जिस इन्द्रिय का जीव ने बड़ा भारी दुरुपयोग किया हो वह इन्द्रिय उस जाव को अगले जन्म में नहीं भी मिलती है। जिस मन का दुरुपयोग करके जीव ने बहुत ज्यादा बुरा सोचा हो उसे जन्मांतर में बिना मन के जन्म करने पड़ते हैं । उदाहरणार्थ सोचिए कि-किसी ने आँख, चक्षुइन्द्रिय का बहुत ज्यादा दुरुपयोग किया है, अर्थात् जीवनभर न देखने जैसा ही ज्यादा देखा है। इस पाप के कारण जन्मांतर में उस जीव को बिना आँख का जन्म लेना पड़े । बिना आँख का जन्म अर्थात् दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय वाले कृमि, चीटी, मकोड़े आदि का जन्म धारण करना पड़े । कृमि, चींटी, मकोड़े को आँख, कान नही हैं । अतः वे दोहान्द्रय, तीन इन्द्रिय जीव कहलाते हैं । ऐसे कई जन्म धारण करते हुए काफी लम्बा काल बिताना पड़ता है। कर्म के घर में यह कितनी बड़ी भारी सजा है । ठीक इसी तरह सोचिए कि सोचने विचारने के कार्य में जो मन सहायक है उसका यदि हमने दुरुपयोग किया तो जन्मांतर में बिना मन का जन्म मिलेगा। जैसे ईर्ष्या, द्वेष आदि वृत्ति से यदि हमने दूसरों का अहित ही सोचा या, विषय-कषाय की वृत्ति से हमने सोचने-विचारने में बहुत कुछ
कर्म की गति न्यारी