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________________ इन्द्रियों का सदुपयोग दस प्रकार के प्राणों में कम से कम चार प्राण अनिवार्य है। १. शरीर २. इन्द्रिय ३. श्वासोश्वास और ४. आयुष्य । संसार में कोई भी आत्मा बिना शरीर रहती ही नहीं है और शरीर के बिना इन्द्रियाँ होती ही नहीं हैं । कम से कम एक इन्द्रिय तो अवश्य होती है। और अधिक से अधिक पाँच इन्द्रि पाँ और मन । 84 के चक्कर में परिभ्रमण करती हुई यह आत्मा पंचेन्द्रिय पर्याय में अन्त में मनुष्य बनती है। पंचेन्द्रिय पर्याय चारों ही गति में है। आज हम अत्यन्त दुर्लभ और कीमती ऐसे मनुष्य जन्म में आए हैं । पाँचों ही इन्द्रियाँ हमें पूर्ण मिली हैं। इन्द्रियों का कार्य वर्ण-गंध-रस स्पर्शादि 23 विषयों को ग्रहण करना है । जन्म से लेकर आज हमारे जीवन के करीब 50-60 वर्ष बीत चुके हैं। यदि हम विचार करें कि मिली हुई इन पाँचों ही इन्द्रियों का हमने कितना सदुपयोग किया है, कितना दुरुपयोग किया है, क्या सही अर्थ में हमने अच्छा सदुपयोग किया है, या अधिकांश दुरुपयोग ही किया है ? इसका उत्तर तो आत्म निरीक्षण करने से ही मिलेगा। लगता ऐसा है कि अधिकांश लोगों ने इन्द्रियों और मन का दुरुपयोग ही ज्यादा किया है । यदि हम स्वयं स्व आत्मा को ही प्रश्न करें कि हे जीव ! (१) क्या तूने देखने जैसा ज्यादा देखा है या न देखने जैसा ही ज्यादा देखा है ? (२) सुनने जैसा ज्यादा सुना है या न सुनने जैसा ज्यादा सुना है ? (३) बोलने जैसा ही ज्यादा बोला है या न बोलने जैसा ज्यादा बोला है ? खाने जैसा ही ज्यादा खाया है या न खाने जैसा ज्यादा खाया है ? (४) सूंघने जैसा ही ज्यादा संघा है या न सघने जैसा ज्यादा सूंघ! है ? (५) मन से सोचने जैसा ही ज्यादा सोचा है या न सोचने जैसा भी ज्यादा सोचा है ? प्रत्येक जीव को योग्यायोग्य का विचार तो प्रायः होता ही है। संज्ञी-समनस्थ-विचारशील जीव प्रायः अपनी बुद्धि का उपयोग करता हुआ योग्यायोग्य का विचार करता हुआ ही कार्य करता है, परसु तीव्र रागादि मोहदशा के कारण स्वार्थबृत्तिवश न करने योग्य कार्य भी कर लेता है। संसार में अधिकांश जीव न देखने जैसा ही ज्यादा देखते हैं, देखने जैसा तो बहुत कम ही देखते होंगे। वास्तव में यह मिली हुई इन्द्रियों का सदुपयोग नहीं है। उसी तरह सभी इन्द्रियां और मन से किया गया विपरीत व्यवहार सदुपयोग नहीं, परन्तु दुरुपयोग ही कहलाएगा। सदुपयोग तो उसे २० कर्म की गति न्यारी
SR No.002480
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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