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गलत ही सोचा तो बड़े भारी पाप कर्मों का बंध होगा । फलस्वरूप जीव को जन्मांतर बिना मन के जन्म धारण करने पड़ेंगे। बिना मन के भव को असंज्ञी भव कहते हैं। जैसे एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय के समुच्छिम में जन्म मिलता है। चींटी, मकोड़ों को या कीट-पतंगों को मन नहीं मिलता है । अब वहां सोचनाविचारना मन से नहीं होता है। ऐसे कई जन्म बहुत लम्बे काल तक करने पड़ते हैं। कर्म के घर में यह कितनी बड़ी भारी सजा है ? इन्द्रियां और मन जो कि जड़ हैं वे स्वयं देखने, सुनने, सोचने आदि की क्रिया में मनमानी नही करते है। वे तो मुख्य कर्ता आत्मा के अधीन हैं। आत्मा जैसा चाहे वैसा उनका उपयोग कर सकती है। जैसे तलवार का क्या उपयोग करना यह कर्ता को सोचना है । यदि सदुपयोग करेगा तो स्व की रक्षा होगी और दुरुपयोग करेगा तो आत्महत्या भी हो सकती है । उसी तरह इन्द्रियाँ और मन भी जड़ है । उनका कैसा उपयोग करना (सदुपयोग या दुरुपयोग) यह निर्णय आत्मा को ही करना होगा। इस सम्बन्ध में उमास्वाती महाराज प्रशमरति ग्रन्थ में कहते हैं कि
स्वगुणाभासरतमते, परवृतांतांधमुक बधिरस्य । मदमदनमोहमत्सर, रोषविशादैरधृश्यस्य ॥
अपने गुण के अभ्यास में रत आत्मा को पर वृत्तांत अर्थात् पराये निमितों को देखने, सुनने, बोलने आदि में अन्ध, मूक और बधिर बनना ही लाभदायक है अर्थात् पर प्रपंच के, पराये दोष-दुर्गुण देखने में हम अन्ध की तरह रहें, पराये दोष-दुर्गण सुनने में हम बधिर-बहरे रहें, तथा पराये-दोष-दुर्गण एवं निन्दा की बातें बोलने में हम मूक-मूंगे बनकर रहें यहि हितावह है। इस तरह मिली हुई इन्द्रियों का सही सदुपयोग करें, यही अच्छा है।
चक्षु की दर्शन शक्ति का सदुपयोग
आत्मा के दर्शन गुण को क्रिया रूप में परिणत करके परमात्मदर्शन से दर्शनगुण विशुद्ध एवं विकसित करें। अतः परमात्मदर्शन आध्यात्मिक साधना की एक अद्भुत प्रक्रिया हैं। दर्शनीय परमात्मा है, और दर्शन कर्ता पामरात्मा है । आत्मा के साथ परम और पामर विशेषण जोड़ने से परमात्मा और पामरात्मा शब्द बनते है। परम+आत्मा = परमात्मा, पामर+आत्मा = पामरात्मा । आत्म स्वरूप
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कर्म की गति न्यारी