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आत्मा से होने वाले दर्शनगुण को आवत करती-रोकती है, और पांचों प्रकार की निद्रा ज्ञान-दर्शन की क्रिया में आत्मा की जागृत अवस्था को रोकती है इन ९ कर्म प्रकृतियों का अर्थ कर्मग्रन्थकार ने इस प्रकार बताया है ।
चक्खु - दिदि-अचक्खु -सेसिदिअ-ओहि केवलेहिं च । दंसणमिह सामानं तस्सा- वरणं तयं चउ-हा ॥१०॥
चक्षु अर्थात् आंख या दृष्टि, अचक्षु अर्थात् शेष चार इनि, यां । मन को भी यहां लिया गया है) अवधि और केवल दर्शन के द्वारा सामान्याकार ज्ञान को दर्शन कहते हैं । इन चार प्रकार के दर्शनों पर आने वाले कर्मावरण को दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । वे क्रमशः इन्हीं चार गुणों को ढकने वाले होने से इनके नाम से ही कर्म कहलाते हैं । १. चक्षु दर्शनावरणीय कर्म २. अचक्षु दर्शनावरणीय कर्म ३. अवधि दर्शनावरणीय कर्म ४. केवल द ननावरणीय कर्म ।
१. चक्ष दर्शनावरणीय कर्म-चक्षु-आंख से होने वाले - दर्शन को रोकने वाला-आच्छादित करने वाला चक्षु दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है, अर्थात् चक्षु दर्शन को ढकने वाला चक्षु दर्शनावरणीय कर्म कहलाता हैं ।
२. प्रचक्ष दर्शनावरणीय कर्म-चच के अतिरिक्त चारों शेष चार इनियों से (स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, श्रवणेन्द्रिय) होने वाले सामान्यकार बोध रूप दर्शन को रोकने वाला-आच्छादक अवक्षुदर्शनावरणीय कर्म कहलाता है ।
३. अवधि दर्शनावरणीय कर्म-अवधि अर्थात् नियत क्षेत्र की दूरी वाले प्रदेश तक देखने की आत्मा के अवधि दर्शनगुण को रोकने वाला अवधिदर्शनावरणीय कर्म कहलाता है । अर्थात् अवधि ज्ञान के पूर्व होने वाला रूपी द्रव्य विषयक सामान्यकार बोध स्वरूप दर्णन को रोकने वाला अवधि दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है।
४. केवल दर्शनावरणीय कर्म-अनन्त लोकालोकाकाश तक देखने की आत्मा के केवल दर्शन गुण को रोकने वाला-अच्छादक कर्म केवल दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है। अर्थात् लोकालोकाकाश के सर्व व्य विषक सामान्यकार ज्ञान रूप दर्शन का आवरक केवल दर्शनावणीय कर्म कहलाता है ।
आस्मा का सामान्य उपयोग अर्थात् पदार्थ का सामा यकार रूप से देखना यह दर्शन कहलाता है और विशेष उपयोग अर्थात् सामान्यकार से देखे हुए पदार्थ
कर्म की गति न्यारी
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