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और ज्ञान विशेषाकार होता है। सामान्य ज्ञान को दर्शन कहते हैं, और विशेष ज्ञान को ज्ञान कहते हैं । इनियों से देखने आदि की क्रिया में सर्वप्रथम वस्तु का सामान्य बोध अर्थात् दर्शन होता है, और बाद में विशेष बोध ज्ञान होता है । आत्मा ज्ञेय पदार्थो को देखकर ज्ञान करती है। आत्मा स्वयं अपनी दर्शन शक्ति से पदार्थो को देखती है, और देखे हुए पदार्थों को ज्ञानगुण से जानती है । कर्मावरणग्रस्त आत्मा के ज्ञान-दर्शनादिगुण तथा प्रकार के कर्मों से दबे हुए होने के कारण देखना जानना आदि इन्द्रियों की मदद से करती हैं । ज्ञान एवं कानावरणीय कर्म के विषय का पहले काफी विचार कर चुके हैं । प्रस्तुत प्रवचन में दर्शनगुण एवं दर्शनावरणीय कर्म पर विचार कर रहे हैं । आत्मा के दर्शनगुण को ढकने वाला दर्शनावरणीय कर्म कहा है । श्री उत्तराध्ययन सूत्र में इसके अवान्तर भेद नौ बताए हैं ।
दनावरणीय कर्म __
दर्शन ४
निद्रा ५
चक्षु दर्शन अचक्षुदर्शन अवधि दर्शन केवल दर्शन
चक्खुमचखू ओहिस्स, दंसणे केवले य आवरणे । एवं तु नवविगप्पं, नायव्वं दंसणावरणं ॥६॥
[उत्तरा. अ. ३३ श्लो. ६]
निद्रा
निदानद्रा
प्रचला
प्रचला-प्रचला थिणद्धी
निद्द। तहेव पयला, निहानिद व पयलापयला य । तत्तो य थीणगिद्धी पंचमा होइ नायव्वा ॥५॥
उत्तरा. अ. ३३ श्लो. ५ दर्शनावरण ते वरणवु, नव पगइ दुर्दत । दर्शन निद्रा भेदयी, चउ पण कहे अरिहन्त ॥१॥
चौसठ प्रकारी पूजा में वीर विजय महाराज ने दर्शनावरणीय कर्म के मुख्य दो भेद बताकर फिर ९ भेद करते हैं।
४ प्रकार के दर्शनवरण एवं ५ प्रकार की निद्रा इस तरह मिलकर कुल ९ कर्म प्रकृतियां दर्शनावरणीय कर्म की है। चारों दर्शनावरणीय की कर्म प्रकृतियां
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कर्म की गति न्यारी