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करने से या कुपात्र को देने से, तथा उदर पूर्ति के लिए धर्म ग्रन्थ शास्त्रादि बेचकर
आजीविका चलाने से, पस्ती-कचरे में बेच देने से, या शास्त्र ग्रन्थों की सुरक्षा न करने से, उन्हें दीपक आदि लगने से न बचाने से इस तरह अनेक तरीकों से ज्ञान-ज्ञानी तथा ज्ञानोपकरण साधनों की आशातना करने से घोर ज्ञानावरणीय कर्मबंध होता हैं । जिसके परिणाम स्वरूप बड़ी भारी सजा भुगतनी पड़ती है।
ज्ञानावरणीय कर्म की सजा
तीव्र पापवृत्ति से उपरोक्त बताए हुए कारणानुसार यदि ज्ञान-ज्ञानी तथा ज्ञानोपकरण की आशातना आदि करके भारी ज्ञानावरणीय कर्म उपार्जन किया हो तो वह कर्म अपने निचित समय पर जरूर उदय में पाएगा । जीव ने स्वयं कर्म बांधा है, उसकी स्थितिकाल अवधि नियत है अतः कर्म की उदय में आने की अवधि होते ही वह कर्म उदय में पाएगा। पाप की सजा बड़ी भारी होती है । जैसे कर्म बांधे हैं वैसे फल सामने आएंगे। यह तो कर्म सिद्धान्त का नियम है किAs you sow so shall you reap. जैसा बीज बोएंगे वैसा फल पाएंगे। बबूल बोकर आम के फल नहीं पा सकेंगे। आपको आम खाने की इच्छा है तो आप पहले से ही प्राम की गुठली बोइए तो पाम खाने को मिलेंगे । जैसा करेंगे वैसा भरेंगे । यही कर्म सत्ता का नियम है । अतः यदि आपने ज्ञान-ज्ञानी की आशातना करके भारी पाप कर्म उपार्जन किया ही है तो उसकी सजा भोगनी ही पड़ेगी । ज्ञानावरणीय
कर्म का स्वभाव ही अज्ञान प्रदान करने
का है। ज्ञान गुण को ढंकने का ही है। ખે પાટા જેવું जैसे एक देखते हुए व्यक्ति की प्राखों पर
पट्टी बांध दी जाय तो परिणाम क्या आएगा ? वह देखने की शक्ति होते हुए भी नहीं देख पाएगा। अंधे की तरह
दीवार के, लकड़ी के सहारे चलने की શનિાવરણીય કર્મ क्रिया करेगा। उसी तरह ज्ञानावरणीय
कर्म जब उदय में पाएगा तब उस जीव
को पांच ज्ञानेन्द्रियों से विकल बनाएगा। म्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षु इन्द्रिय, श्रवणेन्द्रिय (कान) इन पांचों ज्ञानेन्द्रिय की विकलता पैदा करेगा। इनकी शक्तियां क्षीण कर देगा या नष्ट भी कर देता है । परिणाम यह आता है कि कोई जन्म से ही अन्धा बनता है, मूक-मूंगा
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कर्म की गति न्यारी
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