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________________ है , उसी तरह ज्ञानी महात्मा के प्रति भी अनादर असद्भाव या अविनय की वृत्ति नही रखनी चाहिए । परोस = प्रदेष वृत्ति-ज्ञान तथा ज्ञानोपकरण एवं ज्ञानी महात्मा के प्रति प्रद्वेष वृत्ति रखने से भी कर्म बंध भारी होता है । अखबार आदि पर बैठ जाना, बिछाकर सो जाना या अखबार या ज्ञान के अक्षर लिखे हो ऐसी कॉपी के पत्तं, पत्र-पत्रिका या पुस्तक के पत्तों में खाना, या उन पत्तों से बच्चे के मलमूत्रादि साफ करना, या फाड़कर कहीं भी फेंक देने आदि से, तथा जलाना, कॉपीपुस्तक-अखबार-पत्ते आदि जलाकर उपयोग में लाना इत्यादि से भारी कर्म बंध होता है। ज्ञानी विद्या दाता गीतार्थ गुरू आदि की आशातना उन्हें सताना, उनकी निंदा करना, उनकी अपकीर्ति करना, उनके बारे में विपरीत प्रचार करना या लिखना आदि प्रद्वष वत्ति से जीव भारी कर्म बंध करता है। अन्तराएणं-अन्राय करना = विध्न डालना. पढ़ने वाले को पढ़ने न देना, अभ्यास करने वाले के माया कपट से या ईर्ष्या बुद्धि से उसे पढ़ने न देना, काम करने के लिए कहना, उसकी पुस्तककॉपी आदि छिपा देना, फाड़ के फेंक देना, चुरा लेना, अभ्यासु को परेशान करना, इत्यादि रीत से पढ़ने वाले की पढ़ाई के बीच अन्तराय-विध्न करने से जीव भारी ज्ञानावरणीय कर्म उपार्जन करता है। अच्चासायणाए-अति प्राशातना करनी, किसी ज्ञानी विद्वान की अत्यन्त ज्यादा पाशातना करनी, हल्के तरीके से उन्हें गाली देना, नीच कुल का कहना, उन पर हल्के दोषारोपण करना, मात्सर्य वृत्ति से उनके खिलाफ प्रवृत्ति करना, उन पर कलंक लगाना, आरोप डालना, अभ्याख्यान तथा पैशून्य वृत्ति से दोष न होते हुए भी दोषारोपण करना यह ज्ञानी विद्वान की घोर पाशातना से महाभारी पाप कर्म उपार्जन करता है । ज्ञानियों के प्रति मर्मच्छेदी बातें बनाना, या उनके पाहारादि में मिलावट करना, या मारणान्तिक प्राणान्त कष्ट पहुँचाना, या किसी भी तरह उन्हें सन्ताप तथा मनोद्वेग पहुँचाना यह भारी पाप कर्म है । इसी तरह निषिद्ध देश-काल में-अकाल में अध्ययन करना, अधिकार न होते हुए भी शास्त्रादि पढ़कर अनधिकार चेष्टा करना, सूत्र-सिद्धान्त का अपलाप करके उल्टे अर्थ करना, उत्सूत्र प्ररूपणा करनी, किसी को भी गलत सलाह देकर उल्टे मार्ग पर ले जाना, शास्त्रों के अर्थ विपरीत समझाना, कुतर्क करके सिद्धान्तों को झूठे साबित करना, ज्ञानोपकर के प्रति प्रविनयी बुद्धि से पैर लगाना, थूक लगाना, या अन्य गन्दी वस्तु से दूषित करना आदि अकाल-काल समय में पढ़ना, तथा ऋतुस्राव (m. c.) में पढ़ना-लिखना आदि, तथा पुस्तकों का तकिया बन कर सोना, बैठना, ईर्ष्या वृत्ति से पुस्तक पढ़ने के लिए दूसरों को न देना, अपनी समझ शक्ति अच्छी होत हुए भी दूसरों को न समझाना, न सिखाना, विद्या को छिपाकर रखने से, न बताने से, न सिखाने से या गुप्त रखकर नाश २४८ कर्म की गति न्यारी
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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