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________________ अर्थात् विपरीत ज्ञानादि सामने व्यवहार में प्रचलित है । अतः ज्ञानादि की श्रात्मगुणानुरूप प्रवृत्ति नहीं चल रही है । श्रपितु जीव ज्ञानावरणीय कर्म जन्य सारी प्रवृत्तियां कर रहा है । ज्ञानावरणीय प्रादि कर्मावरणों से आत्मा के ज्ञानादि गुण ढक जाने के बाद जो अज्ञान - अल्पांश में ज्ञान की प्रभा छाया जो प्रकट होगी उसी के श्राधार पर जीव प्रवृत्ति करेगा । उदाहरणार्थं तेजस्वी सूर्य जब बादलों से ढक जाएगा फिर क्या होगा ? जितनी प्रभा जितना कम प्रकाश रहेगा जीव उसी में गति - प्रगति प्रवृत्ति करेंगे । ठीक उसी तरह ज्ञान गुण की जीव ने ही वैसे पाप कर्म करके ढक दिया है । अत: सारी विवेक दशा भूल गया । ज्ञानाचार धर्म भूल गया । श्रब उस पाप की सजा को भुगतता हुआ अज्ञानी, अविवेकी की तरह प्रवृत्ति करता है । ज्ञानावरणीय कर्म बांधने की पाप प्रवृत्ति परिणीयत्तण निन्हव उवघायपोस अंतराएणं । अच्चासायणाए आवरण दुगं जिश्री जयइ ॥५४॥ तत्प्रदोषनिह्नन मात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥ ६-१२ ।। प्रथम कर्म ग्रंथ के ५४वें श्लोक तथा तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के ६-१२ सूत्र ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्म बांधने के श्राश्रव बताए गए हैं। कैसी-कैसी पाप प्रवृत्ति करने से जीव किस तरह ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय दोनों कर्म बांधते है ? वह प्रवृत्ति इसमें दर्शाई गई है । पडिणीयत्तण = प्रत्यनीकत्व-अनिष्ट प्राचरण करने से, अर्थात् ज्ञानवान् ज्ञानी महापुरुषों के प्रतिकूल आचरण करने से, उनके विपरीत व्यवहार करने से, ज्ञानी महापुरुषों के प्रति द्वेषभाव, या दुश्मनावता की वैमनस्य भरी वृत्ति रखकर प्रत्यनीक अर्थात् शत्रुता रखने से जीव ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय दोनों कर्म बांधता है । निम्हव अर्थात् अपलाप करना । किसी के पास पढ़कर भी मैं इनके पास नहीं पढ़ा हूँ यह छिपाने की अपलाप की वृत्ति निन्हव वृत्ति है । उसी तरह अमुक विषय को जानता हुआ भी मैं नहीं जानता । इस तरह ज्ञानी और ज्ञान दोनों को छिपाकर अपलाप करने वाला, तथा मृषावाद असत्य सेवन करने से, झूठ बोलने से, उवघाय - उपघात -विनाश करने से, ज्ञान तथा ज्ञानियों का नाश करना, उन्हें नुकसान पहुँचाना, तथा ज्ञानोपकरण- साधन पुस्तक, विद्या के साधन पाटी, पोथी, स्थापनाजी (ठवणी) सापडो, पेन- कलम, कागज, कापी, माला इत्यादि ज्ञान के जो उपयोगी उपकरण हों उनकी आशातना, वरणीय कर्म का बंध होता है, रुचि पूर्वक विनय रखना चाहिए या अनादर करने से ज्ञानाज्ञान के साधनों के प्रति भी प्रादर सद्भाव तथा अन्यथा अनादर प्रविनय से भारी कर्म बंध होता कर्म की गति न्यारी २४७
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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