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________________ (१) तीर्थसिद्ध, (२) प्रतीर्थसिद्ध, (३) तीर्थंकर सिद्ध, (४) अतीर्थकर सिद्ध (सामान्य केवली प्रादि), (५) स्वयंबुद्ध सिद्ध, (६) प्रत्येकबुद्ध सिद्ध, (७) बुद्धबोधित सिद्ध, (८) स्त्रीलिंगसिद्ध, (९) पुरुषलिंग सिद्ध, (१०) नपुंसकलिंग सिद्ध, (११) स्वलिंग सिद्ध, (१२) अन्यलिंग सिद्ध, (१३) गृहिलिंग सिद्ध, (१४) एक सिद्ध और (१५) अनेक सिद्ध । जिण-अजिण-तित्थऽतित्था, गिहि-अन्न-सलिंग -थी-नर--नपुंसा । पत्तय सयंबुद्धा, बुद्धबोहिय इक्कणिक्का य ॥ (नवतत्त्व) -जीवविचार प्रकरण में "सिद्धा पनरस भेया"-अर्थात् सिद्ध १५ प्रकार से होते हैं । यह जो बात कही गई है वही नन्दीसूत्र आगम के उपरोक्त पाठ से समझी जाती है। अणन्तर सिद्ध केवलज्ञान के १५ भेद नन्दीसूत्र में तथा नवतत्त्व प्रकरण की उपरोक्त गाथा में गिनाए गए हैं, जिसमें ८वें भेद पर स्त्रीलिंग सिद्ध, ९वें भेद में पुरुषलिंग सिद्ध आदि भेद गिनाए हैं। यह शास्त्रीय प्रमाण है और भी अनेक शास्त्रों में प्रमाण मिलता है। ज्ञान शरीर को नहीं प्रात्मा को होता है सामान्य तर्क बुद्धि के आधार पर भी सोचा जाय तो ज्ञान शरीर का गुण नहीं है, आत्मा का गुण है, अतः ज्ञान शरीर को नहीं, परन्तु प्रात्मा को होता है । जो जिस द्रव्य का मूलभूत गुण होता है, वह उसी में आच्छन्न रहता है और प्रावरण के क्षय के बाद उसी में प्रकट होता है। शरीर पुद्गल जन्य पोद्गलिक है और पुद्गग के गुणों में वर्ण-गंध-रस-स्पर्शात्मक ही प्राधान्य रूप से रहते हैं। आत्मा जड़ नहीं है । पुद्गल जन्य पोद्गलिक भी नहीं है । अतः आत्मा में वर्णादि के गुण रहने संभव नहीं है । प्रात्मा चेतन द्रव्य है । ज्ञानादि गुणवान् है अतः आत्मा में ही ज्ञानादि गुण मूलभूत रूप से रहेंगे और प्रकट होंगे। ___ आत्मा नामकर्मानुसार जिस किसी भी जाति या जन्म में जैसा भी कैसा शरीर धारण करे, चाहे वह एकेन्द्रिय का हो विकलेन्द्रिय का हो या पंचेन्द्रिय का हो, परन्तु प्रात्मा के स्वरूप में कोई फरक नहीं पड़ता। शरीर तो आत्मा के रहने के लिए मात्र प्राधारभूत स्थान है । आत्मा प्रात्म स्वरूप के दृष्टिकोन से सभी एक सरीखी-एक समान है। चाहे महावीरस्वामी की आत्मा हो या चाहे हमारी प्रात्मा हो या चाहे हाथी-घोड़े-पशु-पक्षी की हो या चाहे कृमि-कीट-पतंग की हो, सभी की आत्मा प्रात्म द्रव्य के दृष्टिकोण से एक जैसी ही है; अतः चाहे स्त्री हो या पुरुष हो सभी की आत्मा आत्मद्रव्य के रूप में एक सरीखी है । प्रात्म स्वरूप में कोई भेद कर्म की गति न्यारी ३०९
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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