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अनन्त है। अनन्त काल में एक-एक जीव या अजीव द्रव्य की अनन्त-अनन्त पर्याय बदल चुकी है। इतना ही नहीं यहां तक कहा गया है कि-"अनन्त धर्मात्मकं वस्तु" अर्यात् वस्तु अनन्त धर्मवाली है। ऐसी वस्तुएं भी जगत् में अनन्त हैं। एक-एक वस्तु के अनन्त धर्मों को पहचानने के लिए अपेक्षाएं भी अनन्त हैं। जीव भी अनन्त हैं और एक-एक जीव के प्रध्यवसाय-भाव तथा भवादि भी अनन्त है इन सब अनन्त की अनन्तता को जाननेवाला सर्वज्ञ-केवलज्ञानी का ज्ञान भी अनन्त ज्ञान है । अत: इस ज्ञान को अनन्त ज्ञान कहते हैं। ऐसा अनन्तज्ञान-केवलज्ञान प्राप्त करके तीर्थकर भगवान देशना देते हैं । कहा है कि
केवलाणेणऽस्थे, ना जे तत्थ पन्नवणजोग्गे । ते भासह तित्थयरो, वइ-जोगसुयं हवाइ सेसं ॥२६॥
श्री विशेषावश्यक भाष्य में कहा है कि-(ऐसे) केवलज्ञान के द्वारा पदार्थ पौर अर्थ जानकर उसमें जो कहने योग्य है उसे ही तीर्थंकर भगवान (केवली.सर्वज्ञ) कहते हैं। यह बोलना उनके लिए वचन योग है, परन्तु शेष सभी के लिए श्रुत स्वरूप है । अब विचार किया जाय कि ऐसे अनन्त स्वरूप केवलज्ञान को प्राप्त करने वाले तीर्थकर मृषावाद या असत्य वचन कैसे कहेंगे ? जबकि एक तरफ राग-द्वेषमोह-कषायादि का सर्वथा नाश हो गया है अर्थात् प्रसत्य या विपरीत कथन के जो कारण है राग-द्वेषादि उनका ही जब सर्वथा क्षय या नाश हो गया, तो फिर असत्य बोलेंगे कैसे ? विपरीत कथन कैसे करेंगे ? कारण के बिना कार्य कैसे बनेगा ? क्योंकि असत्य सेवन के प्रमुख कारणों में क्रोध, मान, माया, लोभ तथा भय, हास्यादि गिने गये हैं । अब वे ही नहीं हैं अत: प्रभु वीतरागी हैं। पापकर्मादि संसक्त जितने भी दोषादि हैं उनका अभाव होने से कहा गया है कि- “अष्टादश दोषजितो जिनः" अठारह दोष रहित जिन भगवान होते हैं। अब दोषों के सर्वथा क्षय से उनसे प्राच्छादित जो गुण थे वे प्रकट हो गये हैं। राग-द्वेषादि दोष थे और वीतरागतादि गुण हैं। एक तरफ वीतरागता का महान गुण प्रकट हो गया जो सर्व दोषों की निवृत्ति का सूचक और दूसरी तरफ सर्वज्ञता का गुण भी प्रकट हो गया, अर्थात् मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से वीतरागता की प्राप्ति बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानक के अन्त में तेरहवें गुणस्थानक में प्रवेश करते ही केवलज्ञानादि की प्राप्ति हो जाती है। शेष तीन घाती कर्म-(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय,
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कर्म की गति न्यारी