SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अप्रतिपाती-अनन्त-शाश्वतज्ञान प्रतिपाती अर्थात् उत्पन्न होकर पुनः नष्ट हो जाए, चला जाए वैसा। ठीक इसके विपरीत अप्रतिपाती = अ निषेधार्थक+प्रतिपाती = अर्थात जिसका कभी नाश न हो, प्राकर पुन: चला न जाए वैसा। अतः अन्य ज्ञान प्रतिपाती है जबकि केवलज्ञान अप्रतिपाती अर्थात् एक बार प्राप्त होने के बाद पुन: कभी भी न जाने वाला -शाश्वत अर्थात् सदाकाल ही रहने वाला है । शाश्वत का अर्थ ही यह है कि सदा काल-अनन्त काल तक रहने वाला। शाश्वत या अनन्त कहने से या अप्रतिपाती कहने से केवलज्ञान की अविनाशीता सिद्ध होती है अतः इसे अविनाशी ज्ञान कहते हैं। इसे अनन्त ज्ञान कहने के दो प्रयोजन है। एक तो नहीं है अन्त जिसका, (न अन्त = अनन्त) ऐसा अनन्त । अर्थात् एक बार यह ज्ञान हो जाने के बाद इसका पुन अन्त कभी नहीं होता प्रतः केवलज्ञान को अनन्त ज्ञान कहते है। यह अनन्त की कालवाची व्याख्या हुई । अत: काल की दृष्टि से किसी भी काल में केवलज्ञान का अन्त (नाश) नहीं होता है इसलिए अनन्तज्ञान कहलाता है। परन्तु अनादि-अनन्त नहीं, सादि-अनन्त कहा जाएगा। अनादि से तो यह अर्थ होगा कि जिसकी आदि ही नहीं है ऐसा अनादि परन्तु केवलज्ञान अनादि नहीं है। प्रात्मा प्रमादि-मनस्त शाश्वत द्रव्य जरूर है। परन्तु चार प्रकार के घनघाती कर्मों का क्षष प्राज सर्व प्रथम बार ही हुआ है और केवलज्ञान जीव ने पहली बार ही प्राप्त किया है अत: इसे अनादि न कहते हुए सादि कहा है। सादि अर्थात्-"प्रावि सहितमिति सादि" आदि के साथ जो उत्पन्न होता है वह सादि । अनादि-अनन्त भूतकाल बीतते के बाद भी प्रात्मा ने जब सर्व प्रथम बार ही चारों घाती कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया है तब से ही उसकी प्रादि-अर्थात् शुरूपात प्रारम्भ है, पहले से नहीं, प्रतः केवलज्ञान सादि कहलाएगा। परन्तु भाविकाल की दृष्टि से विचार करने पर उसका अन्त कभी भी नहीं होता है अतः अनन्त कहलाएगा। इन दोनों शब्दों एक साथ एकत्र करने पर केवलज्ञान सादि अनन्त कहलाता है। अनन्त की दूसरी व्याख्या में समस्त ब्रह्माण्ड स्वरूप लोकालोक के पदार्थ अनन्त है, द्रव्य प्रनन्त है, गुण अनन्त है, तथा द्रव्यों की पर्यायें अनन्त है, काल कर्म की गति न्यारी
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy