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आत्मा शान्त-स्थिर बनेगी । इस तरह अन्त में सर्वथा मोहनीय कर्म का समूल संपूर्ण क्षय (नाश) हो जाने से "वीतरागता" का महान गुण प्राप्त हो जाएगा। यह अन्तिम प्रक्रिया बारहवें क्षीण मोह गुणस्थानक के अन्त में होती है। वीतरागता की प्राप्ति यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। वीतरागता की प्राप्ति और मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने के बाद शेष ३ घाती कमों का क्षय तो क्षण मात्र, पल भर में हो जाता है । ज्ञानावरणीय प्रादि तीनों का क्षय सर्वथा सम्पूर्ण रूप से हो जाता है।
(१) मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय से - वीतरागता गुण की प्राप्ति (२) ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा क्षय से अनन्त ज्ञान गुण की प्राप्ति (३) दर्शनावरणीय कर्म के सर्वथा क्षय से-अनन्त दर्शन गुण की प्राप्ति (४) अन्तराय कर्म के सर्वथा क्षय सेदानादि अनन्तलब्धि-शक्तियों की प्राप्ति ।
इस तरह केवलज्ञान यह आत्मा का अनन्त ज्ञान गुण होते हुए भी सिर्फ एक ज्ञानावरणीय कर्म मात्र के ही क्षय से नहीं उत्पन्न होता है परन्तु चारों घाती कर्मों के सर्वांश रूप से सम्पूर्ण प्रकार से सर्वथा क्षय होने से प्राप्त होता है। अतः वीतरागता, केवलज्ञान, केवलदर्शन, एवं अनन्तलब्धिशक्ति ये चारों गुण जो कि अनन्त स्वरूपात्मक हैं वे सभी प्रकट होते हैं। सिद्ध होते समय आठों कर्मों का क्षय होता है लेकिन केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए पहले चार कर्मों का क्षय होना आवश्यक है प्रतः चार मुख्य घाती कर्मों के क्षय होने से प्राधे सिद्ध तो यहीं हो गये, शेष चार कर्म जो कि अघाती हैं अतः उनको क्षय करने में ज्यादा परिश्रम नहीं होगा, जितना इन चार घाती कर्मों को क्षय करने में लगता है।
___ यह अप्रतिपाती-अभेद ज्ञान है
"केवलमिगविहाणं'-यह केवलज्ञान प्रभेद रूप है । अर्थात् इसके कोई भेद नहीं बनते हैं। जैसे कि पहले के चार ज्ञानों के २८ (या ३४०), १४ या १२, ६, २ इत्यादि क्रमशः प्रथम चार ज्ञान के जो प्रकार और भेद-प्रभेद होते हैं उसी तरह केवलज्ञान के कोई भेद-प्रभेद या प्रकार नहीं होते हैं। यह एकाकी. अकेला, अभेदस्वरूप, अनुपम एवं अद्वितीय है। न तो केवलज्ञान की उपमा किसी के साथ दी जा सकती है, अतः.यह अनुपम है। न ही केवलज्ञान के जैसा दूसरा कोई ज्ञान है अतः इसे अद्वितीय ज्ञान कहा गया है। यह अनन्तज्ञान है ।
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कर्म की गति न्यारी