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________________ सधना विशेष से होता है । तथा प्रकार के कर्मावरण के क्षयोपशम के बाद ही यह मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है। इस ज्ञान का मुख्य कार्यक्षेत्र-संज्ञि पंचेन्द्रिय मनुष्य क्षेत्रस्थ जीवों के मनोगत भावों को जानने का होता है। इसी ज्ञान से किसी के मन के विचार जाने जा सकते हैं। अन्यथा नहीं। किसी भी संज्ञि पंचेन्द्रिय जीव जो कि ढाई द्विप परिमित मनुष्य क्षेत्र में उत्पन्न हुआ हुआ हो उसने अपने मन में जो भी कुछ चिन्तन किया हो, सोचा हो उसके मनोगत भावों को मनःपर्यवज्ञानी जान सकते हैं प्रत्यक्ष जान लेते हैं और क्षण मात्र में ही कह सकते हैं कि प्रापने मन में जयपुरी लाल घडे के बारे में सोचा है। भगवान महावीर प्रभु ने वैशाख सुदी ११ की तिथि के दिन समवसरण के प्रवेश द्वार पर वादविवादार्थ पाए हुए ईन्द्रभूति गौतम आदि ११ विद्वान पंडितों को उनके मन की शंका का स्वरूप प्रकट करते हुए सहर्ष आमंत्रित किया । यह सुनकर गौतमादि सभी आश्चर्यचकित हो गये । अरे ! हमारे मन की शंका को कैसे जान गये ? बस सारा अभिमान का पर्वत गिरकर चूर-चूर हो गया। वे सभी पंडित ठंडे हो गये । आगे फिर सर्वज्ञ प्रभु से शंका का समाधान करके तत्त्वों का सही स्वरूप समझ कर प्रभु के चरण कमल में शिष्यत्व-दासत्व स्वीकार करके उनके माजीवन शिष्य बने। मनःपर्यवज्ञान का विस्तृत वर्णन पुस्तिका नं. ४ में किया गया है। पाठक गण विशेष ज्ञानवृद्धि के लिए नन्दिसूत्र तथा विशेषावश्यक भाष्यादि ग्रन्थ अवश्य पढें । प्राज इस कलियुग के वर्तमान काल में काल के असर के नीचे हम सभी हैं। अत: अाज ऐसा मन:पर्यवज्ञान किसी को भी नहीं है, और न ही किसी को प्राप्त होता है । यह विच्छेद गया हुआ है। इस सिद्धान्त को सही रूप से समझकर यदि कोई कहता है कि मुझे प्राप्त है, मुझे ऐसा ज्ञान है तो उसे मिश्याभाषी समझना चाहिए । एक ला पीस्तालीश हजार, पाचशे एकोण जाणीये । मननाणी मुनिराज, चोवीश जिनना वखाणीये ॥ चौवीस तीर्थंकर भगवन्तों के कुल मिलाकर १४५५९१ एक लाख पैतालीस हजार पांच सौ एक्यानवे है। यह संख्या ज्ञानपंचमी के देववंदन में लक्ष्मीसूरि २९८ कर्म की गति न्यारी
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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