________________
महाराज ने बताई है। यह मनःपर्यवज्ञान होने वाले प्रात्मा इसी भव में मोक्ष में जाते हैं । तद्भव मोक्षगामी कहलाते हैं ।
ए गुण जेहने उपन्यो, सर्व विरति गुणठाण । प्रणमुं हितथी तेहना, चरण कमल चित्त प्राण ॥
- सर्वविरति गुणस्थानक पर यह गुण जिसे भी प्रकट हुआ हो अर्थात् ऐसे स्वरुप का मन.पर्यवज्ञान जिसे भी प्राप्त हुआ हो उनके चरण-कमल का चित्त में ध्यान करके हित बुद्धि से प्रणाम करता हूं।
केवलज्ञान का स्वरुप वर्णन
चौथी प्रवचन पुस्तिका में पृष्ठ २३९ से केवलज्ञान का वर्णन अत्यन्त प्रल्प प्रमाण में किया है। प्रस्तुत अधिकार में यहाँ पर केवलज्ञान तथा केवलज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है ? इसकी प्रक्रिया क्या है ? यह तथा केवली के स्वरुप का वर्णन करना है । पाँचोंज्ञान में केवलज्ञान यह पाँचवां तथा अन्तिम ज्ञान है। इतना ही नहीं, परन्तु ज्ञान के क्षेत्र में यह अन्तिम चरम सीमा का ज्ञान है। बस इसके बाद प्रागे ज्ञान-ज्ञेय की बात ही नहीं है । अतः ऐसे केवलज्ञानी ही चरम अन्तिम कक्षा के ज्ञानी कहलाते हैं । यहीं ज्ञान की अन्तिम सीमा का अन्त है। केवलज्ञान की प्राप्ति होने के बाद ही कोई भगवान बनते हैं। तभी ही आत्मा परमात्मा बनती है। वर्तमान काल में केवलज्ञान तो क्या कवलज्ञान (खाने-पीने के ज्ञान) का भी पूरा ठिकाना नहीं है और भगवान बन बैठते हैं । अपने आप स्वयं भगवान बन जाते हैं । यह भगवद् स्वरूप की कितनी घोर पाशातना है ? कितना बड़ा मजाक है । संसार के रागी, पाप प्रवृत्ति के पुरस्कर्ता, भुक्तभोगी, विषय-वासना के कीड़े ऐसे रागी-द्वेषी अपने पापको स्वयं भगवान कहते हैं या कहलवाते हैं । यह शराबी के नशे की तरह एक प्रकार के पागलपन के सिवाय और क्या है ? कम से कम भगवान बनने की प्रक्रिया को तो जानें, और भगवान का स्वरूप तो समझें । फिर उस दिशा में भूतकाल में हुए उन सर्वज्ञ महान भगवानों के साथ तुलना करके तो सोचें। फिर प्रागे विचार करें । परन्तु हाय इस कलियुग की अधमता की यह निशानी है कि वर्तमान काल में मधमकक्षा के होन जीव भगवान बन बैठे हैं और मूढ लोग भी अज्ञानतावश उन्हें भगवान की तरह मानकर उनके पीछे नरक की खाई में गिरते जा रहे हैं । पाप करना यह भूल है, और भूल करे वह भगवान नहीं कहलाता तथा जो
कर्म की गति न्यारी
२९९