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इस स्तुति में पू. विजयलक्ष्मीसूरि महाराज कहते हैं-संसारी गृहस्थावस्था का त्याग करके सिद्ध भगवान को “नमो सिद्धाणं" पद से नमस्कार करके, मदमानादि का त्याग करके भगवान जब स्वयं सर्व विरति सामायिक अर्थात् सर्व सावध पाप से मुक्त होने स्वरूप यावत् जीवन काल पर्यन्त तक के साधुपने योग्य चारित्र धर्म स्वीकार करके अणगार साधु बनते हैं, और उस साधुपने में जहां तक छद्मस्थावस्था रहती है अर्थात् सर्वज्ञ केवलज्ञानी एवं वीतराग नहीं बन जाते हैं वहां तक योगासन में तपश्चर्या करते हुए रहते हैं। ऐसी दीक्षा ग्रहण करते समय तीर्थंकर भगवान को चोथा मनःपर्यवज्ञान प्राप्त होता है। ऐसे प्रभु को हे भवि प्राणी भाव पूर्वक प्रणाम करो।
प्रतः इससे यह सिद्ध होता है कि-चौथे मनःपर्यवज्ञान के अधिकारी एक मात्र संसार के त्यागी-वैरागी विरक्त तपस्वी चारित्रधारी साधु मुनि भगवंत ही होते हैं । यह ज्ञान गृहस्थाश्रमी संसारी अवस्था में नहीं प्राप्त होता है। एक मात्र सर्व विरति धर्म संयमी साधु को ही। यदि गृहस्थाश्रमी संसारी अवस्था में होता तो तीर्थकर भगवंतो को भी हो गया होता। वे भी जन्मतः या गृहस्थाश्रम से ही चतुर्ज्ञानी कहलाते । परन्तु शास्त्रों में जन्मत: तीन ज्ञानी कहा है चतुर्जानी जन्मतः नहीं कहा है। शास्त्रों में अनेक चरित्र ग्रन्थों में, अनेक महापुरुषों के जीवन चरित्र वर्णन में कहीं पर भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है कि गृहस्थाश्रमी संसारी अवस्था में किसी को भी चौथा मनःपर्यव ज्ञान प्राप्त हुप्रा हो ऐसा एक भी दृष्टान्त नहीं मिलता है। नन्दि सूत्र प्रादि प्रागम ग्रन्थों में भी यही स्पष्ट किया गया है कि-चौथा मनःपर्यव ज्ञान चारित्र धारी संयमी साधु को ही हो सकता है । - "गोयमा ! इढिपत्तअपमत्तसंजयसम्मदिठ्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कतियमणुस्साणं,"'उप्पज्जइ । (नन्दिसूत्र)
हे गौतम ! ऋद्धि प्राप्त अप्रमत्त संयत-अर्थात् जिनकल्पि सम्यग् दृष्टि, पाहारादि षट् पर्याप्तियुक्त पर्याप्तनामकर्मवान् संख्येय वर्ष अर्थात् पूर्वकोटी वर्षायुष्यवाले उसमें भी १५ कर्मभूमि में उत्पन्न कर्म भूमिक्षेत्रज गर्भज मनुष्य ऐसे को ही चौथा मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है । इस तरह नन्दिसूत्र में कहा है ।
यह चौथा मनःपर्यवज्ञान मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होता है । तथा इस कर्म का क्षयोपशम सर्वविरति चारित्र विशेष से एवं तपादि की
कर्म की गति न्यारी
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