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गौतमस्वामी-हे श्रावक श्रेष्ठ ! भूल मेरी है, अत: मैं मिच्छामिदुक्कडं देने के साथ क्षमायाचना करता हूँ। तुम्हारा कहना सही है तुम्हें हुआ अवधिज्ञान-अवधिदर्शन सही है।
कितनी अगाध सरलता थी ! कितनी महान पापभिरूता थी ? दोष शुद्धि की कितनी तत्परता थी ! धन्य महामना लब्धिनिधान गौतमस्वामी। इस तरह गृहस्थाश्रमी अवस्था में श्रावक कक्षा में भी भावविशुद्धि एवं क्षयोपशम के आधार पर अवधिज्ञान अवधिदर्शन प्राप्त होता है ।
मनः पर्यवज्ञान पांच प्रकार के ज्ञानों में चार ज्ञान श्रावकावस्था में प्राप्त होने सुलभ है । परन्तु चौथा मनःपर्यवज्ञान श्रावक की कक्षा में संसारी अवस्था में कदापि नहीं होता। यह सिर्फ संसार के त्यागी विरक्त वैरागो छठे-सातवें गुणस्थान के स्वामी साधुमहात्माओं को ही होता है।।
श्री मनः पर्यव ज्ञान छे, गुण प्रत्ययी ए जाणो। अप्रमादि ऋद्धिवंतने, होय संयम गुणठाणो ॥
कोइक चारित्रवंतने, चढ़ते शुभ परिणामे। चौथा मनःपर्यवज्ञान भी गुणप्रत्ययिक है। सयम-चारित्र के जो दो गुणस्थानक हैछट्ठा प्रमत्त संयत, और सातवां अप्रमत्त संयत । इन दो गुणस्थानक पर रहे. हुए अप्रमादि ऋद्धिवंत चारित्रधारी संयमी मुनि महात्मा को ही शुभ भाव के परिणामों में चढ़ते-बढ़ते ही होता है। मुनि वेषज विनारे, नवि उपजे दो भेदे नाणः । अर्थात् साधु वेष के बिना यह दोनों भेद वाला मन.पर्यवज्ञान श्रावक को नहीं होता है। तीर्थंकर भगवान को भी जन्मत: मति-श्रुत और अवधि ३ ज्ञान ही होते हैं । चौथा मनःपर्यवज्ञान उन्हें भी नहीं होता है क्योंकि गृहस्थावस्था में संसारी होने के कारण । परन्तु संसार छोड़ते ही और चारित्र स्वीकारते ही हो जाता है । यह बात स्तुति से स्पष्ट करते हुए कहा है कि
प्रभुजी सर्व सामायिक उच्चरे, सिद्ध नमी मद वारीजी; छद्मस्थ अवस्था रहे थे जिहां लगे, योगासन तप धारीजी। चोथु मन:पर्यव तव पामे, मनुज लोक विस्तारीजी; ते प्रभु ने प्रणमो भवि प्राणी, विजयलक्ष्मी सुखकारीजी ॥
कर्म की गति न्यारी