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श्री गौतम स्वामी पधारे । श्रानन्द श्रावक ने भाव भरी वन्दना करते हुए विनती की कि-- हे भगवान् संस्तारक ( संथारे) से बाहर भूमि का त्याग किया हुआ होने के कारण मैं बाहर पैर नहीं रखना चाहता प्रतः हे कृपालु ! श्राप समीप पधारो ताकि मैं आपके चरण स्पर्श कर सकूं । गौतम स्वामी पधारे और आनन्द श्रावक ने भावपूर्वक निवेदन किया कि हे कृपालु ! प्रापकी असीम कृपा से मुझे अवधिज्ञान- अवधिदर्शन प्राप्त हुआ है और इतने ऊपर देवलोक तक तथा प्रधो एवं तिछ दिशाओं में इतना इतना दिखाई दे रहा है ।
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यह सुनते ही गौतम स्वामी ने कहा- हे प्रानन्द ! गृहस्थाश्रम में श्रावक को इतनी सुदीर्घ प्रवधि तक का अवधिज्ञान नहीं हो सकता, अतः मृषावचन का "मिच्छामिदुक्कडं" दे दीजिए ।
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श्रानन्द श्रावक - हे कृपानाथ ! क्या महावीर प्रभु के शासन में सत्य वचन का भी मिच्छामिदुक्कडं दिया जाता है ?
गौतम स्वामी - नहीं - नहीं । मृषावचन का ही दिया जाता है ।
आनन्द श्रावक - हे कृपालु ! तो फिर मिच्छामिदुक्कडं मुझे देना चाहिए कि आपको ? गौतम स्वामी - प्रानन्द ! इस विषय में मैं समवसरण में जाकर प्रभु को पूछ लेता हूं
इतना कहकर गौतमस्वामी समवसरण में गए और प्रदक्षिणा पूर्वक वंदना करके निवेदन किया कि - हे भवोदधितारक देवाधिदेव ! मिच्छामिदुक्कडं मुझे देना चाहिए या प्रानन्द को ?
श्रवधिज्ञान श्राणंद ने दिए, मिच्छामिदुक्कडं गोतमस्वामी ।
परम करुणा के सागर श्री महावीर प्रभु ने फरमाया- गौतम ! मिच्छामिदुक्कडं तुम्हें देना चाहिए ।
अत्यन्त सरल स्वभावी विनम्र एवं नवनीत की तरह कोमल हृदयवाले गौतमस्वामी मध्याह्न की तेज धूप होते हुए भी श्राहार- पानी की गोचरी एक तरफ रखकर यथाशीघ्र सीधे प्रानन्द श्रावक को मिच्छामिदुक्कडं देने गए ।
कर्म की गति न्यारी
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