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इस हंसने का परिणाम यह पाया कि हास्य मोहनीय कर्म विशेष के कारण महात्मा का अवधिज्ञान चला गया। अर्थात् नष्ट हो गया। पुनः अवधिज्ञानावरणीय कर्म का उदय हो गया। इससे यह समझ में प्राता है कि किसी तरह कर्म के क्षयोपशम से ज्ञान प्रकट होता है और कर्म के उदय से ज्ञान कैसे नष्ट होता है।
प्रानन्द श्रावक को अवधिज्ञान उपन्यो अवधिज्ञाननो, गुण जेहने अविकार।
वन्दना तेहने माहरी, श्वास मांहे सो वार । विजय लक्ष्मीसूरि महाराज ने ज्ञानपंचमी के देववंदन में पांचों ज्ञानों का स्वरूप वर्णन करते हुए अवधिज्ञानी को नमस्कार करते हुए लिखा है कि-अवधिज्ञान का अविकारी गुण जिसे भी प्राप्त हुआ हो उस अवधिज्ञानी महात्मा को मेरी एक श्वास में सौ बार वंदना हो । ऐसा अवधिज्ञान भूतकाल में अनन्तात्माओं को प्राप्त हो चुका है। आगमों के ११ अंगसूत्रों में सातवें अंगसूत्र "उपासकदशांग सूत्र" में भगवान महावीर प्रभु के परम उपासक ऐसे दश श्रेष्ठ श्रावकों का वर्णन आता है। जिसमें प्रानन्द श्रावक का सर्व प्रथम वर्णन है। गृहस्थ संसारी आनन्द व्यापारी ने महावीर प्रभु के पास देश विरति धर्म योग्य श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये । प्रतिवर्ष व्रतों की मर्यादा में संक्षिप्तीकरण करते-करते आन्नद श्रावक सर्वथा निष्परिग्रही हो गया था और चावल का पानी आदि लेते थे। इस तरह उपासकदशांग आगम में आनन्द श्रावक के त्याग-तप का अनुपम वर्णन किया गया है । १४ वर्ष की अनुपम साधना करते-करते अानन्द श्रावक ने अन्त में संथारा लेकर मात्र पैर फैला सके इतनी ही भूमि में संथारा करके अनशन कर लिया था। ऐसे परमोपासक मानन्द श्रावक के भाव विशुद्धि के बल पर अवधिज्ञानावरणीय एवं अवधिदर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने से अवधिज्ञान एवं अवधिदर्शन प्राप्त हुआ। ऐसा ज्ञान होते ही प्रानन्द श्रावक को काफी लम्बे-चौड़े क्षेत्र तक स्पष्ट दिखाई देने लमा। अवधिज्ञान से अवधिज्ञानी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से कहां तक कितना जान सकते हैं व देख सकते हैं इस विषय में विस्तृत वर्णन नन्दि सूत्र में तथा विशेषावश्यक भाष्य में किया गया है।
आनन्दश्रावक को इस अवधिज्ञान-अवधिदर्शन से अनेक द्वीप समुद्रादि दिखाई देने लगे। योगानुयोग ऐसे समय श्री वीरप्रभु के आद्य गणधर अनन्तलब्धि निधान
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कर्म की गति न्यारी