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अरदिण्णाणं उवसमेणं श्रीहिणाणं समुप्पज्जति । श्रहवा गुणपडिवण्णस्स अणगारस्स श्रोहिणणं समुप्पज्जति ।
अवधिज्ञान को क्षायोपशमिक पारमार्थिक भेद में गिना गया है । किस कारण क्षायोपशमिक में गिना है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि तदावरणीय प्रर्थात् प्रवधिज्ञानावरणीय कर्म के उदयावलिक में प्राप्त कर्म पुद्गल परमाणुओं के क्षय से और अनुदीर्ण अर्थात् उदय में न श्राये हुए कर्म का उपशमन करने से श्रर्थात् क्षयोपशम भाव से प्रवधिज्ञान प्रकट होता है । तथा तपादि गुण विशेष से कर्म का क्षयोपशम होने के कारण यह गुण प्रत्ययिक अवधिज्ञान कहा जाता है । "संखाईयाश्रो खलु श्रोहिण्णास्स” भाष्य के आधार पर यद्यपि अवधिज्ञान के संख्यातीत भेद बनाए गये हैं । परन्तु मुख्य रूप से ६ भेद प्रचलित हैं ।
अणुगामि-वड माहीय, पडीवाईयर - विहा छा श्रोही । (१) अनुगामि (२) अननुगामि, (३) वर्धमान, (४) हीयमान, (५) प्रतिपाति, (६) प्रतिपाति इस तरह ये मुख्य भेद गिने गये हैं । श्रनुगामि के भी (१) अन्तगत और मध्यगत ये दो भेद होते हैं ।
जिस तरह अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है उसी तरह प्रवधिज्ञानावरणीय कर्म के उदय से अवधिज्ञान आच्छादित भी हो जाता है । तथाप्रकार की अशुभ प्रवृत्ति से ये गुण नष्ट भी हो जाता है । शास्त्र में एक प्रसंग ऐसा आता है कि
एक मुनि महात्मा अपनी प्रतिलेखन की क्रिया ( पडिलेहण) करके कचरा निकाल रहे थे, उस कचरे को इकट्ठा करके फैंकने (परठवने) के बाद इरियावही की क्रिया करते समय भाव की विशुद्धि से अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान प्रकट हुआ | महात्मा श्रवधिज्ञानी बने । प्रवधिज्ञान उत्पन्न होते ही बिना किसी इन्द्रिय की मदद से स्वर्ग-नरकादि दिखाई देने लगे । ऊर्ध्व क्षेत्र के देवलोक का पहला स्वर्गं दिखाई दिया । महात्मा ने देखा कि प्रथम स्वर्गाधिपति सौधर्मेन्द्र अपनी प्रियतमा इन्द्राणी को मना रहे थे । इन्द्राणी कुछ नाराज थी अतः इन्द्र उन्हें मना रहे थे। बड़े ही दीन भाव से विनती करके मनाते हुए सौधर्मेन्द्र को देखकर क्षण भर में मुनि महात्मा को हंसी आ गई। कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े-खड़े महात्मा हंसने लगे ।
कर्म की गति न्यारी
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