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अपने स्थान पर रहे हुए ही प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं। पुस्तक नं. ४ पृष्ठ संख्या २३० से अवधिज्ञान के स्वरूप एवं भेदों का वर्णन किया गया है अत: यहाँ पुनरावृत्ति नहीं करते हैं।
अवधिज्ञानावरण ना, क्षय थी थया चिद्रूप।
ते आवरण दहन भणी, ऊर्ध्व गति रूप धूप ॥ शुभवीरविजयजी महाराज चौंसठ प्रजारी पूजा के चौथी ढाल में उपरोक्त दोहे के भय से जो चिद्रूप हो चुके हैं उनकी धूप पूजा रूपी भक्ति करते हुए हम भी उस अवधिज्ञान के आवरण का क्षय कर सकें यह भाव रखा हैं।
मुख्य रूप से अवधिज्ञान के भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक ये दो भेद किये गए हैं भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान स्वर्गस्थ देवतानों और नरक के नारकी जीवों को जन्मत: होता है। जिस तरह पक्षियों में जन्मतः उड़ने का स्वभाव होता है उसी तरह देवता और तारकी जीवों को जन्मतः अवधिज्ञान होता है । गुण प्रत्ययिक अवधिज्ञान जन्मत: नहीं होता है। यह मनुष्य और पशु-पक्षियों को ही होता है । प्रत: गुण प्रत्ययिक अवधिज्ञान के अधिकारी मनुष्य और तिर्यंच गिने जाते हैं । गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता है । संसारी प्रात्मा के प्रत्येक गुणों पर कर्म के आवरण हैं। पांचों प्रकार के ज्ञान प्रात्मा के ज्ञान गुण के अर्न्तगत है। अतः इन पांचों ज्ञान के उपर कर्म के प्रावरण भी. लगे हुए है। अवधिज्ञान के आवरक कर्म को अवधिज्ञानावरणीय कर्म कहा जाता है । जैसे बादलों के हटने से सूर्य दिखाई देता है ठीक वैसे ही उन-उन कर्मों रूपी बादलों के हटने अर्थात् क्षय एवं क्षयोपशम से उस उस प्रकार के ढके हुए गुण प्रकट होते हैं । यहाँ " पर अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ही अवधिज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। विशेषावश्यक भाष्य के ५७५ वें श्लोक में यह दर्शाया है कि
उदयक्खय-क्खओवसमो-वसमा जं च कम्मणो भणिया।
दक्ष-खित्त-काल-मवं च भावं च संपप्प ॥
कर्म के जो उदय-क्षय-क्षयोपशम और-उपशम कहे गये हैं वे द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव और भव इन पांच के निमित्त को पाकर होता है । नन्दिसूत्र में कहा है कि-कोह हेऊ खायोवसमियं ? खायोवसमियं तयावरणिज्जाणं कम्माणं उदिण्णाणं खएणं
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कर्म की गति न्यारी