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(स्मरण), (२) प्रत्यभिज्ञान, (३) ऊह (तर्क), (४) अनुमान, (५) पागम (शब्दप्रमाण) प्रादि पांच भेद परोक्ष प्रमाण के होते हैं।
(१) स्मृति (स्मरण) प्रमाणः-"तत्र · संस्कारप्रबोधसंभूतमनुभूतार्थविषयं तदित्याकारं वेदनं स्मृत्तिः।" संस्कार से उत्पन्न अनुभव किये हुए पदार्थ में "वह है" इस प्रकार के स्मरण होने को स्मृति कहते हैं उदाहरणार्थ .. यह जिन प्रतिमा है।
(३) प्रत्यभिज्ञानप्रमाण--"अनुभवस्मृतिहेतुर्क तिर्यगूर्खतासामान्यादिगोचरं संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । यथा तद् जातीय एवायं गोपिण्डः, गोसदृशो गवयः, स एवायं जिनदत्त इत्यादिः।" वर्तमान में किसी वस्तु के अनुभव करने पर और भूतकाल में देखे हुए पदार्थ का स्मरण होने पर तिर्यगसामान्य (वर्तमान कालवर्ती एक जाति के पदार्थों में रहने वाला सामान्य) और ऊर्ध्वतासामान्य (एक ही पदार्थ के क्रमवर्ती सम्पूर्ण पर्यायों में रहने वाला सामान्य) आदि को जानने वाले संकलनात्मक ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । उदाहरण दिया है कि (१) यह गोपिण्ड उसी जाति का है (२) यह गवय गौ (गाय) के समान है, (३) यह वही जिनदत्त है । उपमान प्रमाण का जैन ताकिकों ने इसी प्रत्यभिज्ञानप्रमाण में समावेश किया है। अत: उपमान को अलग से स्वतन्त्र प्रमाण नहीं माना है परन्तु प्रत्यभिज्ञान को ही प्रमाण माना है।
(३) ऊह (तर्क) प्रमाणः-उपलम्भानुपलम्भसम्भवंत्रिकालीकलित साध्यसाधनसम्बन्धाद्यालम्बनमिदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याद्याकारं संवेदनमूहस्तापरपर्यायः । यथा यावान् कश्चिद् धूमः स सर्वो वह्नौ सत्येव भवतीति तस्मिन्नसति प्रसौ न भवत्येवेति वा।
उपलंभ और अनुपलंभ से उत्पन्न, त्रिकाल कलित, साध्य साधन के सम्बन्ध आदि से होने वाले-'इसके होने पर यह होता है, इस प्रकार के ज्ञान को ऊह अथवा तर्क के नाम से प्रमाण रूप माना जाता है । उदाहरणार्थ-(१) अग्नि के होने पर ही धुम होता है, अग्नि के न होने पर धूम नहीं होता है। .
(४) अनुमानप्रमाणः-अनुमानं द्विधा स्वार्थं परार्थं च । तत्रान्यथानुपपप्येकलक्षणहेतुग्रहण-संबंधस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम् । पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात् ।
कर्म की गति न्यारी
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