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________________ एक मित्र जिस तरह कल्याण में निमित्त बन सकता है उसी तरह प्रादर्श ऊंचे साहित्य की एक पुस्तक शायद हमारे जीवन का ढांचा बदलने में काफी उपयोगी सिद्ध हो सकता है। यह समझकर उस लड़के ने शास्त्र पोथी पढ़ी, उसके एक-दो वाक्यं को जीवन में उतारकर वह जगत में महान बन गया। ब्राह्मण जिसके भाग्य फूटे हुए थे, वह ५०० रुपये पाकर बहुत ही आनन्दित होते हुए वहां से चला । उसके भाग्य में सम्पत्ति नहीं थी। शहर के बाहर उसे लुटेरे मिले, उन्होंने चाकू-बन्दूक दिखाकर ५०० रुपये लूट लिये। रोता-पछताता हाथ मसलकर बेचारा घर गया। सिर पीटता रह गया। जहां भाग्य ही फूटे हो वहां कोई क्या कर सकता है ? देवता पाए तो भी क्या कर सकते हैं ? वे देकर चले भी जाएं परन्तु भाग्य में नहीं है तो टिके कहां से ? शास्त्र पोथी को पढ़कर ज्ञान उपार्जन कर लिया होता तो शायद वह ज्ञान उसके लिए कल्याणकारी ज़रूर सिद्ध होता । अतः प्रादर्श साहित्य सिर्फ सजावट के लिए नहीं होता है अध्ययन-अध्यापन, पठनपाठन एवं चिन्तन-मनन के लिए होता है । प्रादर्श ज्ञान भण्डार सैकड़ों वर्षों पहले की बात है जबकि मुद्रण पद्धति विकसी ही नहीं थी। ऐसे समय में भी हमारे पूर्वज महापुरुषों ने अनेक शास्त्र लिखे । शू-य में से सर्जन किया। इतना ही नहीं लिखे हुए शास्त्र प्रतों की सैकड़ों-हजारों प्रतियां तैयार करवाई और भारत भर के विविध क्षेत्रों-प्रदेशों में चारों तरफ भिजवाकर ज्ञान भण्डार निर्माण करवाए । एक साथ सातसौ-सातसौ लेखकों (लहीयों) को बैठाकर प्राचार्यश्री हेमचन्द्राचार्यजी लिखवाते थे और गुजरात की गद्दी का राजा कुमारपाल ताडपत्र तथा भोजपत्रों की व्यवस्था करता था। सारा खर्च राज्य कोष से होता था। इस तरह यन्त्रयुग न होते हुए भी हजारों प्रतियां हाथ से लिखकर (हस्तलिखित) अनेक देश-विदेशों में सैकड़ों ज्ञान भण्डार समृद्ध कराए। जैनाचार्यों की यह अनुपम ज्ञानसेवा थी । समूचे भारत देश के ज्ञान के खजाने की रक्षा-सुरक्षा एवं संवर्धन का कार्य करने में जैनाचार्यों एवं जैनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है यह सभी को नि:संदेह स्वीकारना ही पड़ेगा । जैन शासन की अनुपम सेवा की है। ज्ञान की उपासना का यह भी एक सुन्दर मार्ग है । अत: अाज इतना समृद्ध ज्ञान का खजाना हमारे सामने उपस्थित हो सका है। यदि ऐसा ज्ञान तथा साहित्य नहीं मिला होता तो शायद क्या होता ? इस संदर्भ में आठवीं शताब्दी के प्रांचार्य श्री हरिभद्रसूरि महाराज के शब्द इस प्रकार हैं कत्थ अम्हारिसा पाणी, दूसमा दोस दूसिया । हा प्रणाहा कहं हुता, न हुतो जइ जिणागमो । कर्म की गति न्यारी २७७
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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