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________________ पोथी को उठाकर गांव-गांव घूमता रहता था। बेचने के लिए सबको दिखाता रहता था। उस काल की बात थी-५०० रुपये देकर पोथी कौन खरीदे ? १ वर्ष बीत गया । ब्राह्मण परेशान हो गया। अरे रे ! देवी ने पोथी क्यों दी ? देवी ने ही ५०० रुपये दे दिये होते तो भटकने की यह नौबत तो नहीं आती। अाज भी बिना पढ़े पण्डित बनने की इच्छा वाले अनेक हैं । पढ़ना नहीं है, परिश्रम नहीं करना है परन्तु किसी तरह उपाधि डिग्री हासिल करनी है । विद्वान बनना नहीं है । विद्वान है ऐसा दिखावा करना है। यह सरस्वती का कितना उपहास है ? बिना परिश्रम के विद्या उपार्जन न करते हुए भी विद्वता का दावा करना, विद्वान न होते हुए भी विद्वान है ऐसी कीर्ति, प्रशंसा प्राप्त करना, मान-सम्मान-पुरस्कार एवं पद प्राप्त करना यह भगवती सरस्वती का कितना छल गिना जाएगा ? परीक्षाओं को पास करने के ही हेतु से सिर्फ पढ़ना और वह भी किसी तरह परीक्षा पास करके उपाधि प्राप्त कर लेनी जिससे प्राजीविका चला सके । वर्तमान शिक्षा पद्धति का हेतु ज्ञानोपार्जन के बजाय अर्थोपार्जन रह गया है। Learning is only for Earning विद्या.सिर्फ अर्थोपार्जन के लिए ही रह गई है। यह कितना निकृष्ट कक्षा का हेतु है। एक काल वह था जब विद्या दान से अर्थोपार्जन करना निकृष्ट कहलाता था। आज वह दूषण भूषण रूप में परिवर्तित हो गया है। ब्राह्मण घूमता हुमा एक शहर में गया। बड़ी दूकान देखकर चढ़ा। मध्याह्न के समय पिता भोजन के लिए घर गये हुए थे और पुत्र दुकान की गद्दी पर बैठा हुप्रा था। ब्राह्मण ने शास्त्र पोथी हाथ में देते हुए कहा, देवी ने दी है इत्यादि सारी बात बता दी । लड़के ने पोथी खोल कर २-४ पन्ने पलटे........देखा और पढ़ा। उसे बड़ी कीमती बातें लगी। सोनेरी सुवाक्य लगे। एक वाक्य भी जीवन में उतर जाए तो जीवन पलट जाये। ऐसा लगते ही ५०० रुपये निकाल कर दे दिये । ब्राह्मण खुश होकर चला । पिताजी दूकान आये। एक पोथी के ५०० रुपये बेटे ने दिये यह सुनकर पिता आगबबूले हो गए। दो-चार चाँटें लगा दिये। मूर्ख कहीं का, निकल यहां से । एक पोथी के इतने रुपये दिये जाते हैं ? ऐसा कहकर बाप ने बेटे को निकाल दिया। सोचिए ! आज ५०० नहीं पाँच हजार कपड़े के लिए दिये जा सकते हैं। बूट-चप्पल के लिए ४००-५०० दिये जा सकते हैं। साड़ी खरीदने के लिए १००० से २००० दिये जा सकते हैं, घर सजावट की वस्तु के लिए तथा बर्तन प्रादि के लिए दो-पांच हजार मामूली बात लगती है। सबके लिए दिये जा सकते हैं परन्तु ज्ञान के लिए प्रच्छे धर्म शास्त्र-पुस्तक-प्रत के लिए खर्च नहीं किया जा सकता। धार्मिक पुस्तकें या अच्छा प्रादर्श साहित्य सस्ता या मुफ्त में चाहिए। जबकि गदा साहित्य हजारों की कीमत चुका कर लाएँगे। धर्मशास्त्र, सत् साहित्य के प्रति आदर सद्भाव ही कहां है ? अाज कितनों के घर में आदर्श साहित्य है ? कहा जाता है कि-Our Best Friends are our best Books. अच्छी पुस्तकें हमारे अच्छे मित्र के स्थान पर है। २७६ कर्म की गति न्यारी
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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