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________________ धर्मग्रंथ बाजारों में सस्ते भाव से १-२ रुपए किलो के भाव में बेच दिए जाते हैं । रद्दी वालों को दे दिए जाते हैं। यह कितना ज्ञान के प्रति अनादर है ?. उसके स्थान पर अश्लील गन्दा एवं फिल्मी दुनिया का सस्ता साहित्य लाकर सजाते हैं। इसी में घर तथा घरवालों की शोभा बढती है । सोचिए ! यह विचारणीय प्रश्न है कि नहीं ? कितनी सोचनीय बात है ? अब क्या परिणाम आएगा? ज्ञानोपासना हुई कि ज्ञान की प्राशातना हुई। ज्ञानावरणीय कर्म उपार्जन करने का भावी में क्या परिणाम आएगा ? एक बार की बात है एक निर्धन ब्राह्मण ने अपनी कुलदेवी की उपासना की। देवी प्रकट हुई। ब्राह्मण ने याचना की, देवी ! कुछ भी दो, थोड़ी धन सम्पत्ति दो, सुवर्ण मुद्राएं दो, मेरी आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। क्या करू ? देवी ने कहाअरे विप्र ! तेरे भाग्य मैं कुछ भी नहीं है। में कहां से दूं? भाग्य बिल्कुल खाली है, मैं क्या करू ? ब्राह्मण ने कहा, देवी ! नहीं........नहीं........आप दैवी हो, देवी शक्ति संपन्न हो, आप अवश्य दे सकते हो। देवी ने कहा........अरे ! देने. वाला भी भाग्यपुण्य बल देखकर देता है। तेरे अशुभ कर्मों में दुःख-दारिद्रय-दौर्भाग्य ही लिखा है । अतः मैं क्या करू ? सोचिए-देने वाला भी आपके भाग्य या पुण्य बल को देखकर देता है । याचक ब्राह्मगा ने हठाग्रह किया और देवी से देने के लिए आग्रह किया । देवी ने कहा- ठीक है-ले जा यह एक शास्त्र पोथी है, इसे तू ५०० रुपये में बेचना । बेचारा ब्राह्मण देवी की बात मानकर शास्त्र पोथी लेकर बेचने चला। शायद उस शास्त्र पोथी को पढ़कर ज्ञान उपार्जन कर लिया होता तो कई कीमती बातें और ऊच्च कक्षा की चीजें उसमें लिखी हुई थी। अनेक सिद्धान्तों का निचोड़ प्रतिपादन था। पढ़कर विद्वान बना होता तो सर्वत्र पूजनीय बनता। दूसरों को पढ़ा कर अपनी आजीविका का वर्षों तक निर्वाह कर सकता था। परन्तु वह पोथी को न खोलता हुआ सिर्फ बेचने हेतु से गांव-गांव घूमता था। सच ही कहा है कि जहा खरो चन्दन भारवाही, भारस्स भागी नहु चन्दणस्य । एवं खु नाणी चरणेण हीगो, नाणस्स भागी न हु सुग्गईए॥ गधा जिस तरह चन्दन के काष्ठ को पीठ पर उठा कर चलता है परन्तु वह चन्दन की सुगन्ध का अनुभव नहीं कर पाता सिर्फ काष्ठ के भार को ही वहन करने वाला बनता है। ठीक उसी तरह चारित्र-आचरण रहित सिर्फ ज्ञान इकट्ठा करने वाला ज्ञानी भी ज्ञान का भी भागी कहलाता है परन्तु सद्गति का भागीदार नहीं बन पाता । यह सार है। ब्राह्मण बेचारा शास्त्र पोथी खोलकर एक सुवाक्य भी नहीं पढ़ पाता था परन्तु कर्म की गति न्यारी २७५
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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