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“शास्त्र चक्षुषा पश्यति" शास्त्र ही हैं आँखें जिसकी उसी से देखता है वही शास्त्रवेत्ता कहलाता है। इसलिए हमें भी हमारी बुद्धि शास्त्रीय अर्थात् शास्त्रानुसारी बनानी चाहिए।
श्रतज्ञानावरणीय कर्म के भेद
प्रात्मा के गुणों पर पाए आवरण का ही नाम कर्म है । अतः जितने प्रात्मगुण हैं उतने ही कर्म हैं । जितने प्रात्मा के ज्ञानादि गुणों के भेद हैं उतने ही ज्ञानादि के आवरक-प्राच्छादक कर्मों के भेद बनेंगे । गत चौथे प्रवचन में सांचों ज्ञानों के भेद दर्शाए गए हैं । अब यहां पर उन्हीं ज्ञान के भेदों के प्रावरक कर्मों के भेद देखने हैं । यहां प्रस्तुत सन्दर्भ में श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के भेद देखने हैं। श्रुतज्ञान के १४ या २० भेद होते हैं । अतः श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के भी उतने ही १४ या २० भेद बनेंगे । जिन-जिन तरीकों से श्रुतज्ञान उदय में आता है उन उन प्रकारों से श्रुतज्ञानावरणीय कर्म भी उदय में आता है । अतः प्रक्षरश्रुत, अनक्षरश्रुत आदि जो १४ प्रकार श्रु तज्ञान के हैं उन सबके आगे “ज्ञानावरणीय" शब्द जोड़ देने पर वे ही श्रु तज्ञानावरणीय कर्म के भेद बन जायेंगे। उदाहरणार्थ-१. अक्षर श्रु तज्ञानावरणीय कर्म, २. अनक्षर श्रु तज्ञानावरणीय कर्म, ३. संज्ञि श्रत ज्ञा. क., ४. असंज्ञि श्रुत ज्ञा. क.,, ५. सम्यक् श्रु त. ज्ञा. क., ६. मिथ्यादृष्टि श्रु त ज्ञा. क. ७. सादि श्रुत ज्ञा. क., ८. अनादि श्र त ज्ञा. क., ९. सपर्यवसित श्रु त ज्ञा. क , १०. अपर्यवसित क्ष त ज्ञा. क. ११. गमिक श्र त ज्ञा. क. १२. अगमिक श्रु त ज्ञा क, १३. अंगप्रविष्ट श्रु त ज्ञा. क. १४ अंगबाह्य श्रु त ज्ञा. क. । इस प्रकार ये श्रु त ज्ञानावरणीय कर्म के १४ प्रकार हुए । अर्थात् अक्षरादि श्रु त ज्ञान के भेद से जो अक्षरादि का बोध होता था वह बोध अक्षर श्रु तज्ञानावरणीय कर्म के कारण नहीं होगा। इसी तरह सभी चौदह प्रकारों के श्र तज्ञानावरणीय कर्म के कारण उस प्रकार के श्रत का बोध नहीं होगा यह समझना चाहिए । बोध न कराना यह श्रु तज्ञानावरणीय कर्म का कार्य है।
___ यह तो हुई १४ भेदों की बात । उसी तरह २० भेदों का स्वरूप भी ऐसा ही है। श्रत ज्ञान के २० भेद के प्राच्छादक २० प्रकार के श्रु तज्ञानावरणीय कर्म इस प्रकार है – १. पर्याय श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म, २. पर्याय समास श्रु त ज्ञानावरणीय कर्म, ३. अक्षर श्रु त ज्ञा. क., ४. अक्षर समास श्रत ज्ञा. क. ५. पद श्रत ज्ञा. क. ६. पद स. श्रु त ज्ञा. क., ७. संधात श्रु त ज्ञा. क., ८. संघात स. श्रु त ज्ञा. क., ९. प्रतिपति श्रु त ज्ञा. क., १०. प्रतिप्रति स. श्र त ज्ञा. क., ११. अनुयोग श्रुत ज्ञा. क. १२. अनुयोग स. श्रु त ज्ञा. क., १३. प्राभृत-प्राभृत श्रुत ज्ञा. क., १४. प्राभृत-प्राभृत स. श्रु त ज्ञा. क., १५. प्राभृत श्रु त ज्ञा. क., १६. प्राभृत स.
कर्म की गति न्यारी
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