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________________ कपोल कल्पित हैं, ऐसा कहकर शास्त्रों को उड़ाने की बालीश कोशिश करते है, यह मिथ्याभाव है । ऐसा क्यों नही सोचते कि मेरी बुद्धि अल्प है, सम्भव है मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही हो. अत: मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, परन्तु शास्त्र एवं सिद्धान्त सही है, ऐसा विचार करना सम्यग् श्रद्धा का भाव है, लेकिन ऐसे भाव वाले कम हैं । स्वमति अर्थात् अपनी बुद्धि में बैठे तो शास्त्र सही और अपनी बुद्धि में न बैठे तो शास्त्र गलत है ऐसा कहना भी अपराध है, उचित नहीं है, क्योंकि ज्ञानावरणीय कर्म की प्रचुरता के कारण हमें बुद्धि अल्प मिली हो जिससे हम शास्त्र के सिद्धान्त को समझ न पायें इसमें हमारी भूल है, न कि शास्त्र की । "नाचन न जाने आंगन टेढ़ा" जैसी बात करनी उचित नहीं है, यदि संसार में सर्वेक्षण करने लगे तो यह दिखाई देगा कि ज्ञानावरणीय कर्म के उदयवाले जीव अधिक है, जबकि ज्ञान के क्षयोपशम वाले जीव अल्प है । हमारे जैसे जीवों का विचार किया जाय तो भी सभी का ज्ञानावरणीय कर्म अनन्तगुना है। जबकि ज्ञान उसके अनन्तवे भाग का ही है अर्थात् सभी जीवों में ज्ञान के उदय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय कर्म का ही उदय अनन्तगुना है । अनन्तगुने ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के सामने अनन्तवे भाग का ज्ञान किस हिसाब में है ? भूतकाल में भी यही स्थिति थी कि ज्ञ नावरणीय कर्म के उदयवाले जीवों की संख्या ही ज्यादा थी और ज्ञान के उदयवाले जीवों की संख्या अल्प थी यही स्थिति वर्तमान में है और भावी में रहेगी। कभी भी ज्ञानियों की संख्या अज्ञानियों से बढ़ी नहीं है । ____ अब जो ज्ञानी है उनमें भी एक ही विषय के पूर्ण ज्ञानी या अनेक विषयों के पूर्ण ज्ञानी या अनन्त विषयों के सम्पूर्ण ज्ञानी हैं ? आज एक विषय के ही पूर्ण ज्ञानी नहीं है तो अनेक विषयों के पूर्ण ज्ञानी की तो बात ही कहाँ रही ? संसार में अनन्त वस्तुएं हैं। अतः ज्ञान भी अनन्त वस्तु विषयक होगा। इतना ही नहीं वस्तु अनन्त धर्मात्मक है एक-एक वस्तु की अनन्त पर्याय हो चूकी है, क्योंकि वस्तु स्वयं उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होने से पर्यायों में परिवर्तन होता ही रहता है । एक वस्तु के अन्त पर्यायों को जानने के लिए या अनन्त वस्तुओं के अनन्त पर्यायों को जानने के लिए अनन्त वस्तुविषयक ज्ञान आवश्यक है । हम रे जैसे अल्प ज्ञानी एक ही वस्तुविषयक ज्ञान को भी पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर सकते है तो अनन्त वस्तुविषयक अनन्त ज्ञान की बात कहाँ रही, यह तो अनन्त ज्ञानी के लिए ही सम्भव है। अतः अनन्तज्ञानी बनकर ही अनन्त ज्ञान की अन्तिम सीमा को जान सकेंगे ! सूर्य का प्रकाश होने पर भी उलुक यदि नहीं देख पाता है तो इसमें सूर्य का दोष नहीं अपितु उलुक का ही दोष है, ठीक उसी तरह अनन्त ज्ञानी की बातों को अल्पज्ञानी नहीं समझ पाता है, इसमें अल्पज्ञानी में ज्ञान की अपूर्णता का दोष है। अतः हमें स्वमति पर आधारित न रहकर शास्त्रमति पर प्राधारित रहना चाहिए। २७२ कर्म की गति न्यारी
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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