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________________ करना सदुपयोग कहलाता है । ठीक इससे विपरीत उल्टी दिशा में शक्ति, सम्पत्ति एवं बुद्धि का विपरीत उपयोग करना दुरुपयोग कहलाता है । निरर्थक गप सप लगाने में बुद्धि का उपयोग करना यह बुद्धि का दुरुपयोग है । इसी तरह हंसी-मजाक में, किसी को सताने में कुतर्क-वितर्कों से तत्त्वों की खिल्लियां उड़ाने में, सत्य का अपलाप करके श्रसत्य को सिद्ध करने में, तथा झूठे को सच्चा बनाने में एवं सच्चे को झूठा करने में, असत् को सत् करने में, प्रभाव को भाव करने में, जिसका अस्तित्व नहीं है उसको साबित करने में, और जिसका अस्तित्व है उसको असत् करने में, इत्यादि कई तरीकों से बुद्धि का दुरुपयोग किया जाता है । यह प्रवृत्ति भी ज्ञानावरणीय कर्म बंधाती है, अतः हमें चाहिए कि बुद्धि का सदुपयोग सही दिशा में ही करना चाहिए, जैसे कि सर्वज्ञोपदिष्ट तत्त्वों का सम्यग् ज्ञान उपार्जन करने में, तदनुरूप अध्ययनअध्यापन, चिन्तन-मनन, पठन-पाठन आदि करने में तथा सही श्रद्धा निर्माण करने में, जीवादि नौ तत्त्वों के चिन्तन में, शास्त्रीय विषयों की मीमांसा करने में तथा सत्य को सत्य सिद्ध करने में, एवं प्रसत्य को असत्य सिद्ध करने में तथा सत्य की खोज करने में एवं सत्य सिद्धांतों को जीवन में चरितार्थ करने में प्रादि कार्यों में बुद्धि का उपयोग करना ही बुद्धि का सदुपयोग है । धन, सम्पत्ति और शक्तिं का सदुपयोग यद्यपि आसान है । फिर भी सदुपयोग करने वालों की प्रतिशत संख्या अल्प है, जबकि बुद्धि का सदुपयोग मुश्किल है । अतः सदुपयोग करने वालों की प्रतिशत संख्या भी काफी कम है । सम्प्रति बुद्धिजीवियों का काल गिना जाता है । परन्तु उनका बुद्धि विलास में ही समय व्यतीत होता है । प्राचार धर्म को महत्व न देने वाली वर्तमान बुद्धिजीवी पीढ़ी प्रचार-विहीन बनती जा रही है । यह लाभप्रद नहीं है । अतः मिली हुई बुद्धि का दुरुपयोग करने से जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधकर अज्ञान दुःख भोगता है तथा बुद्धि का सदुपयोग करके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम करके जीव ज्ञान सुख पाता है । स्वमति एवं शास्त्रमति खजाने में से कितने शास्त्र एक महान अगाव महासागर है, जिसका कोई अन्त नहीं है । समुद्र में जिस तरह अनेक रत्न रहते हैं, वैसे ही शास्त्र के सागर में अनेक तत्त्व रहते हैं । शास्त्र एक ज्ञान का खजाना है जो तत्त्वों से परिपूर्ण है । इस भी तत्त्व निकाले. जाय फिर भी कभी समाप्त नही होता है । दूसरी तरफ हमारी मति बुद्धि प्रगाध नहीं है, सीमित परिमित है, मर्यादित है । अब प्रश्न यह उठता है कि परिमित बुद्धि में ज्ञान का अगाध समुद्र कैसे समाविष्ट करें ? जैसे छोटे कुएँ में समुद्र को कैसे समाया जा सकता है ? वैसे ही अगाध एवं अमाप शास्त्र के महासागर को हमारी कूप सदृश बुद्धि में कैसे समाया जा सकता है ? जब स्वमति में शास्त्र की बातें नही बैठती हैं या समझ में नहीं आती है तब लोग शास्त्र झूठे हैं, गलत हैं, कर्म की गति न्यारी
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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