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बंधन में कारण है । इतिहास में ऐसे भी उदाहरण हैं कि मगध के अधिपति सम्राट
राजा श्रेणिक जैसे ने एक चोर के पास से विद्या सीखने के लिए उसे राज्य सिंहासन पर बैठाकर स्वयं नम्रतापूर्वक नीचे बैठकर अंजलीबद्ध विनम्र भाव से निवेदन करके विद्या ग्रहण की थी। विनियाचार के सेवन पूर्वक विद्या ग्रहण करने से वनयिकी बुद्धि निर्माण होती है । जबकि अविनय के अतिचार सेवन से मनुष्य उद्धत्तउन्मत एवं अविनयी बनता है। इसीलिए ज्ञान-ज्ञानी एवं ज्ञानोपकरण का प्रविनय, अपमान आदि करने से ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है।
उपधान एवं योगोद्वहनपूर्वक गुरु सामीप्य में रहकर गुरुगम से शास्त्रादि का ज्ञान सम्पादन करना यह ज्ञानाचार है। जबकि इससे विपरीत. स्वयं शास्त्र दि के मनमाने अर्थ करना यह ज्ञानातिचार है। शास्त्रादि का मनमाने अर्थ करने से बहुत बड़ा अनर्थ होता है । ऐसा करने वाला ज्ञानावरणीय कर्म बांधता है ।
गुरु को छोड़कर अन्य से पाठ लेना-पढ़ना एवं अपने गुरु को छिपाकर अन्य को गुरु कहना यह भी ज्ञानातिचार है।
श्लोक-स्तोत्र-पद-सूत्रादि पढ़ते-लिखते समय मात्रा तथा अनुस्वार प्रादि कम अधिक नहीं करने चाहिए । वर्णमाला के सीमित अक्षरों से बने हुए शब्दों में अनुस्वार एवं मात्रा का भी फरक करने से अनर्थ हो जाता है। उदाहरणार्थ-मास और मांस, शस्त्र और शास्त्र ऐसे शब्दों में अनुस्वार और मात्रा के लगाने और न लगाने से कितना अन्तर होता है यह स्पष्ट समझ में आता है। इसलिए व्यंजन-उच्चार तथा शब्द आदि सही रूप में प्रयोग में लाने चाहिए तथा अर्थ भी सही करना चाहिए, यह ज्ञानाचार धर्म है । ठीक इससे विपरीत व्यजन-शब्द-पद प्रादि गलत लिखने या उनके उच्चारण गलत करने से तथा अर्थ विपरीत करने से ज्ञानातिचार दोष लगता है। जिससे ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है । ज्ञान-ज्ञानी एवं ज्ञानोरकरण की प्राशातना भी ज्ञानावरणीय कर्म बंधाती है। पैर लगने से, थूक लगने से, तथा मत्र-मूत्र साफ करने से इत्यादि अनेक प्रकारों से ज्ञान की प्राशातना होती है । ज्ञानी के प्रति द्वेष-मत्सर एवं ईर्ष्या आदि नहीं करनी चाहिए, ज्ञानी की प्राज्ञा की अवज्ञा भी नहीं करनी चाहिए । ज्ञान रुचि वाले, पढ़ने-पढ़ाने वाले के बीच विघ्न भी नहीं डालना चाहिए, ज्ञानियों की हँसी-मजाक भी नहीं उडानी चाहिए, विद्वानों की खिल्लियाँ उड़ाने से भी मनुष्य अपने पापको ज्ञानावरणीय कर्म से भारी करता है । परिणाम स्वरूप ऐसे अतिचार के सेवन से जन्म-जन्मांतर में अज्ञानी बनता है। ज्ञानगम्य विषयों पर अश्रद्धा-अविश्वास करना भी अतिचार-दोष है । किसी को तुतलाता देखकर उसकी हँसी उड़ाना, किसी गूंगे-बहरे को देखकर हँसी-मजाक उड़ाना भी ज्ञानातिचार दोष है। इस प्रकार ऐसे अनेक ज्ञानातिचार दोष हैं जिनके सेवन से ज्ञानवरणीय कर्म
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कर्म की गति न्यारी