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प्रक्षर व्यंजन कहलाते हैं, जिनसे शब्द बनते हैं । अतः शब्द शुद्धि अर्थात् व्यंजन शुद्धि यह छट्ठा ज्ञानाचार है।
(७) प्रस्थ अर्थ-शब्दार्थ । शब्द का अर्थ कहलाता है। अर्थ से ज्ञान सही समझना-यह अर्थ ज्ञानाचार है । जैसे सुवर्ण का अर्थ सोना ही करना चाहिए ।
(८) तदुभय-शब्द + अर्थ दोनों । शब्द और अर्थ दोनों का ज्ञान होना, यह तदुभय ज्ञानाचार है । इस शब्द-पद एवं सूत्र का जो अर्थ होता है वही करना तथा शब्द-पद-सूत्र-श्लोकादि के साथ-साथ अर्थ का भी सही ज्ञान रखना, इसे तदुभय ज्ञानाचार कहते हैं।
इस तरह ८ प्रकार के ज्ञानाचार बताए गए हैं। उपरोक्त बताए गए ज्ञानाचार के प्राठों नियमों के पालन करने से ज्ञान की उपासना होती है, जिससे ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बंधते हैं । ठीक इससे विपरीत प्राचार के पालन न करने से अर्थात् अतिचारों का सेवन करने से ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है, क्योंकि प्राचार धर्म सही उपासना है, जबकि अतिचार सेवन विपरीत प्रवृत्ति अर्थात् विराधना है। ज्ञानाचार कर्म क्षयकारक है । ज्ञानातिचार कर्म बंधकारक है । ज्ञानाचार के विपरीत ज्ञानातिचार इस प्रकार है :- ..
योग्य काल में न पढ़ते हुए अयोग्य काल में पढ़ना । उल्कापात, ग्रहणकाल, वृष्टिकाल, प्रसूति तथा मृत्यु आदि के सूतक काल में एवं मासिक धर्म आदि के समय में शास्त्रादि का ज्ञान सम्पादन करना वर्ण्य है। ये काल ज्ञानोपार्जन के लिए अशुभअयोग्य हैं, अतः इसे "प्रसज्झाय काल"-अस्वाध्याय काल कहते हैं। इसी तरह अध्याय आदि के दिन तथा अस्वाध्याय आदि का काल छोड़ देना चाहिए। यदि ऐसे अयोग्य काल में स्वाध्याय आदि करते हैं तो ज्ञानातिचार दोष लगता है । अत: योग्य उचित काल में ही ज्ञान साधना करनी चाहिए।
अविनयपूर्वक पढ़ने से भी ज्ञानातिचार का दोष लगता है । ज्ञानदाता ज्ञानी का-शास्त्र-ग्रन्थ-पुस्तकादि ज्ञानोपकरण का विनय तथा सम्मान न करने से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है । इसलिए प्राचीन शिक्षा पद्धति में ज्ञानदाता, गुरु एवं शास्त्र ग्रन्थ-ज्ञानोपकरण आदि का पूर्ण विनय एवं सम्मान किया जाता था । जबकि वर्तमान शिक्षा पद्धति में विनय एवं सम्मान आदि की काफी ज्यादा उपेक्षा देखी जाती है। परिणाम स्वरूप विद्यार्थी में शिक्षक के प्रति कोई सम्मान नहीं है। इसी तरह शिक्षकों में विद्यार्थीयों के प्रति कोई सद्भाव नहीं है। जिसके कारण शिक्षा जगत में विद्यार्थी एवं शिक्षकों के बीच संघर्ष जारी है। यह आधुनिक शिक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी क्षति है । अविनय एवं अपमान प्रादि ज्ञानातिचार है। जो कि कर्म
कर्म की गति न्यारी
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