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________________ हे आत्मन् ! तुझे न तो किसी पर राग करना है, न किसी पर द्वष करना है। यही पाठ का सही अर्थ है। सूत्र से पाठ याद नहीं है परन्तु अर्थ से पाठ विस्मृत भी नहीं है । महात्मा ने प्रर्थानुसारी जीवन ही बना दिया था। पाठ का अर्थ केवल स्मृति में याद रखना ही नहीं होता है। परन्तु जीवन में आचरण करना होता है। क्योंकि पोथी पढ़ने मात्र से पण्डित नहीं कहे जाते हैं । परन्तु सिद्धांत का सही आचरण करने वाले पण्डित कहलाते हैं । प्रतः महात्मा ने प्राचरण पर ज्यादा भार देकर सूत्र के अर्थ को जीवन में चरितार्थ कर दिया था। इसलिए वे महात्मा सदा निस्पृह, निर्मोही, निर्ममत्व, निर्लोभी, निरीह भाव वाले बनकर रहते थे। राग भी नहीं करना है और द्वेष भी नहीं करना है। प्रतः राग द्वेष रहित वीतराग बनना है। इस लक्ष्य से मान-अपमान को भी सहन करते थे। राग-द्वेष के निमित्तों से बचकर दूर रहते थे। __ मन के अध्यवसायों की इतनी ऊंची भूमिका पर पहुँच चुके थे कि उन्हें मान-अपमान की असर नहीं होती थी। अपनी चेतना को पूरी समता में स्थिर रख पाते थे। एक दिन की बात थी कि भिक्षा में उडिद और उडिद की दाल मिली। इस निमित्त से महात्माजी गहरे ध्यान में उतर गए । विचार करने लगे कि यह उडिद क्या है ? और छिलका क्या है ? प्रो हो ! अन्दर से उडिद (माष) तो सफेद है और सिर्फ बहार से प्रावरण-छिलका (तुष) ही काला है । वैसे ही अन्दर से प्रात्मा अनन्त गुणवान शुद्ध स्वच्छ निर्मल है। परन्तु बहार से पाये हुए कर्म के काले प्रावरणों ने प्रात्मा को मलीन कर दिया है। प्रो हो ! प्रात्मा में ज्ञानादि गुण तो मूलभूत मत्ता में पड़े ही हैं। परन्तु कर्म के प्रावरण जो बहार से आये हुए है उनको ही हाना चाहिए । जो बहार से आये हैं उनको बहार निकालना है और जो अन्दर स्थित है उन्हें अन्दर से प्रकट करना है ध्यान की इस धारा में महात्मा शुक्ल ध्यान की कोटी में पहुँच गये। और क्षपक श्रेणी पर प्रारूढ हुए। कर्मों का क्षय होने लगा। जैसे प्रचण्ड प्राग में घास तीव्रता से जलकर भस्म होती है वैसे ही क्षणभर में ढेर सारे कर्म भी नष्ट होते गए। ध्यानानल की अग्नि की प्रचण्ड ज्वालाओं में जनम-जनम के कर्म नष्ट होते गए। और देखते ही देखते महात्मा को केवलज्ञान-अनन्तज्ञान प्राप्त हुआ। महात्मा अल्पज से अनंतज्ञानी-सर्वज्ञ बने । ज्ञान की पाशातना से जो ज्ञानावरणीय कर्म बांधा था उसी का क्षय ज्ञान की तीव्र उपासना से करके अनन्तज्ञानी बनें। अतः ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करने के लिए ज्ञान-ज्ञानी की उपासना ही सही मार्ग है । कर्म की गति न्यारी २६१
SR No.002479
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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