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यह सारा मतिश्रुतज्ञानावरणीय कर्म का नाटक है । प्रस्तुत प्रसंग में शिष्य की भी यही स्थिति थी । उन्हें गुरु के द्वारा बताया हुआ अर्थ याद रह गया । परन्तु सूत्र-पाठ याद नहीं रहता था । परिणाम यह आया कि शिष्य के मुंह से सतत "माष तुष", "माष - तुष" ऐसे ही शब्द निकलते थे । गुरुजी को पाठ सुनाते समय ऐसे ही बोलते थे । फिर से गुरुजी रहे हुए दो अक्षर 'रु' और 'मा' पुनः बैठाकर " मा रूष मा तुष" ऐसा पाठ सिखाते थे । परन्तु कमनसीब शिष्य को ज्ञानावरणीय कर्म के कारण इतना भी याद नहीं रहता था । और "माष - तुष", "माष- तुष" इस तरह रटते थे ।
भारी कर्म उदय में होने पर भी शिष्य निराश नहीं होते थे । किसी भी तरह पाठ करने का भाव रखते थे— इसलिए गोचरी- पानी आदि कार्यों में प्राते-जाते हुए निरन्तर पाठ याद करते रहते थे । आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इन दो शब्दों को पाठ करने के लिए शिष्य ने बारह वर्ष बिताये । साथ ही साथ कर्म क्षय हेतु बारह वर्ष तक प्रायंबिल की तपश्चर्या जारी रखी ।
भिक्षा के समय आहार पानी लेने के लिए जाते समय भी सनत “माषतुष", "माष तुष" ऐसा रटते जाते थे । गृहस्थ लोक भी उनके मुंह से निकलते हुए पाठ के शब्दों के ग्राधार पर माषतुत्र नाम से पुकारने लगे । परिणाम स्वरूप महाराज का नाम ही मात्रतुष मुनि पड़ गया। लोक माषतुष मुनि श्र ये, माघतुष मुनि श्राये ऐसा कहते थे । माष तुष का एक ऐसा विचित्र प्रर्थ भी लोगों ने निकाला कि माष अर्थात् उडिद, तुष अर्थात् उसके छिलके अतः माष तुष अर्थात् उडिद के छिलके वाली दाल ऐसा लोगों ने समझकर महाराज को भिक्षा शुरू किया और दूसरी तरफ महाराज "माष तुष" ही लोगों को भी ऐसा लगता था कि महाराज को उडिद की दाल ही पसन्द है । इसलिए वहेराते थे ।
में
उडिद की दाल वहेराना रटते जाते थे इसलिए
परन्तु यह महाराज को अभिप्रेत नहीं था । उडिद की दाल उनके स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल थी । फिर भी निस्पृह साधु थे । श्रतः तपोभाव में स्थिर रहकर इच्छा निवृत्ति पूर्वक भिक्षा ग्रहण करते थे । लोगों की तरफ से मान-अपमान भी सहन करते थे । एक ही धून थी कि मैं किसी तरह कर्मों का क्षय करूं । इस हेतु से " मा रूष मा तुष" पाठ याद न होते हुए भी अर्थ जो स्मृति में सही बैठा हुआ था उस अर्थ को अपने लक्ष्य में सन्मुख रखकर अर्थ के आधार पर आत्मा को समझाते थे ।
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कर्म की गति व्यारी