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स्पष्ट रूप से जान सकते हैं । विपुलमति मनःपर्यवज्ञान अप्रतिपाती है। आकर वापिस नहीं जाता। केवलज्ञान की प्राप्ति तक टिकता है। अतः विपुलमति मनःपर्यवज्ञान जिस किसी को भी हो गया उसे केवलज्ञान निश्चित होगा। इसमें संदेह नहीं है, अतः यह ज्यादा विशुद्धता है। विशुद्धि क्षेत्र स्वामि विषयेक्योऽवधि मन:पर्याययोः ।।२७ ।। विशुद्धि अर्थात् निर्मलता, क्षेत्र अर्थात् जहां के पदार्थों को जानना है, स्वामी अर्थात उस ज्ञानवाले, और विषय अर्थात ज्ञेय पदार्थ इन चारों बातों की दृष्टि से अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान सभी के एक सरीखे नहीं होते है। एक दूसरे की अपेक्षा सभी के ज्ञान में न्यूनाधिक की तरतमता होती है । कम ज्यादा रहता है। क्योंकि किसी की निर्मलता ज्यादा है तो किसी की निर्मलता कम है। इस तरह विशुद्धि के आधार पर न्यूनाधिकता रहती है। मनःपर्यवज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा सूक्ष्मग्राही तथा विशुद्धतर है। मनःपर्यवज्ञान की अपेक्षा अवधिज्ञान का क्षेत्र जरूर बड़ा है। अवधिज्ञानी लोक-अलोक के रूपी द्रव्यों को देखते-जानते हैं। जबकि मनःपर्यवज्ञानी सिर्फ ढाई द्विप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र के ही संज्ञि जीवों के मनोगत भाव जानते हैं । ढाई-द्वीप-अर्थात् (१) जंबुद्विप पुरा, दूसरा घातकी खंड भी पुरा, तीसरा पुष्कर द्विप आधा ही। क्योंकि पुष्कर द्विप जो १६ लाख योजन विस्तार वाला है उसके ठीक बीचोबीच पूरा गोल मानुषोत्तर पर्वत है। यही मनःपर्यवज्ञानी की अंतिम सीमा है। अतः ढाई द्वीप के ४५ लाख योजन का विस्तार अर्थात् ८ + ८ + ४ + २ + १ + २ + ४ + ८ + ८ = ४५ । इस तरह ढाई द्वीप के मनुष्य क्षेत्र का प्रमाण है। इतने ढाई द्वीप रूप ४५ लाख योजन विस्तार वाले मनुष्य क्षेत्र के संज्ञि पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों का मनःपर्यवज्ञानी जानते हैं।
विमला तमा दिशा रे, जाणे ज्योतिष व्यंतर ठाण; तिर्खालोक मां रे, भाख्यु एह प्रमाण ।।२।। अधोलोकमां रे, योजन सो अधिकेरा जाण। संज्ञिजीवना रे, जाणे मन चिंतन मंडाण ।। ३।।
मनः पर्यवज्ञानी निर्मल ऐसी उर्ध्वदिशा में ज्योतिष्क मंडल तक जानते हैं। क्योंकि ज्योतिष्क मंडल के सूर्य-चंद्र-ग्रह-नक्षत्र-तारा आदि तीर्थोलोक के प्रमाण में ही गिने जाते हैं। तथा तमा अर्थात् अंधकारवाली अधोदिशा में (नीचे) व्यंतरों के स्थान तक जानते हैं । अर्थात् उपर ९00 योजन तथा नीचे भी ९०० योजन तक जो तिर्छालोक का प्रमाण है उतना ही मनःपर्यवज्ञानी का क्षेत्र है। कुल ऊपरनीचे मिलाकर १८०० योजन तथा तिर्छा ४५ लाख योजन परिमित क्षेत्र में अधो में १०० योजन ज्यादा इसलिए कि महाविदेह के नीचे १००० योजन नीचा क्षेत्र है। अतः नीचे १०० योजन ज्यादा । वहां तक के जीवों के मन के पर्यायों अर्थात विचारों कर्म की गति नयारी
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