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________________ किया है? यह जानकर सीधे ही बता देते हैं। अधिक स्पष्टता की दृष्टि से इसके २ प्रकार बताएं हैं ऋजु-विपुलमती मनःपर्यायः।।२५।। मनः पर्यवज्ञान ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान विपुलमति मनः पर्यवज्ञान इस तरह चौथे मनःपर्यवज्ञान के सिर्फ दो ही भेद होते हैं। पहले से दूसरे में विशुध्दि ज्यादा है। (१) ऋजुमति मनः पर्यवज्ञान- दूसरे किसी ने मन में सोचे हुए पदार्थघट-पट आदि के सामान्य स्वरूप को जानना अर्थात् इसने घडे लाने का विचार किया है, घड़ा यहाँ रखने का विचार किया है। इस तरह साधारण रूप से मनोगत चिंतीत वस्तु को बताना यह ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान में विपुलमति वाले की अपेक्षा स्पष्टता कम रहती है। यह ज्ञान आकर नष्ट भी हो जाता है। नहीं भी टिकता है। अतः प्रतिपाती है। (२) विपुलमति मनः पर्यवज्ञान - यह विपुलमति वाला है। विपुला मतिरस्य स विपुलमतिः । ऋजुमति वाले ने जितना जाना है उससे काफी ज्यादा विस्तार से और गहराई में जाकर यह विपुजमति मनःपर्यवज्ञानवाले जानते हैं। दूसरे के मन में स्थित अनेक पर्यायों को जानना यह विपुलमति मनःपर्यवज्ञान है। जैसेकिसी व्यक्ति ने घडे का विचार किया है। विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी साफ-साफ़ बताकर कह देते हैं कि - इसने घडे का विचार किया है। उसमें भी इसने धातु के घडे का विचार किया है। धातु में भी सोने की धातु का घडा सोचा है। वह भी अमुक जगह का (जयपुर का) बना हआ हो ऐसा सोचा है। वह भी अमुक रंग का, पीले रंग डिजाइन चित्रादि किये हुए हो ऐसा ऐसा सोचा है,इतने विस्तार से विशेष स्वरूप को बताए यह विपुलमति मनःपर्यवज्ञान कहलाता है। ऋजुमति वाले इतने विस्तार से इतना स्पष्ट नहीं बता सकते हैं। वह सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि इसने घडे का विचार किया है परंतु और गहराई में जाकर विस्तृत जानकारी नहीं दे सकते । अतः विपुलमति ज्यादा साफ स्वच्छ और स्पष्ट जानता है । यह कुटिल मनवाले की टेढीमेढी बात को भी जान लेते हैं। किसी के द्वारा व्यक्त मन से या अव्यक्त मन से चिंतित या अर्ध चिंतित सभी प्रकार से साफ जान सकते हैं। किसी ने सुख-दुःख, जीने की, मरने की इच्छा, लाभ या नुकसानादि की विचारणाकी हो उसे भी विपुलमति स्पष्ट जान लेते हैं। विपुलमति ज्ञानी जघन्य से सात-आठ भव तथा उत्कृष्ट से गति-आगति की दृष्टि से असंख्य भवों को जान लेते हैं। उत्कृष्ट से मानुषोत्तर पर्वत तक के समस्त ढाई द्वीप के सभी संज्ञि जीवों के मनोगत भावों को कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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