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________________ दो प्रकार का है। (१) भव प्रत्ययिक और (२) क्षायोपशमिक । भव प्रत्ययिक अवधिज्ञान-दो को होता है - एक देव गति के देवताओं को तथा दूसरा नरक गति के नारकी जीवों को। तत्त्वार्थ का सूत्र यही कहता है - "भव प्रत्ययोनारक - देवानाम् ॥१-२१ ।। भव अर्थात् आयु-जन्म, आयुष्य और नाम कर्म के उदय से प्राप्त होने वाली पर्याय, प्रत्यय अर्थात् निमित्त । भव का निमित्त लेकर जो अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जन्म के साथ ही उत्पन्न होता है वह भव प्रत्ययिक अवधिज्ञान कहा जाता है। जैसे पक्षी के उड़ने में आकाश निमित्त है वैसे देवता तथा नारकी जीवों का भव-जन्म ही इस भव प्रत्ययिक अवधिज्ञान के लिए निमित्त है। अतः स्वर्ग-देवलोक के देवताओं को स्वर्ग में जन्म लेते ही अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है उसी तरह नरक गति के नारकी जीवों को वहां जन्म लेते ही अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है, परंतु सभी का एक सरीखा समान नहीं होता है। उसमें भी तरतमता होती है, क्योंकि भव अवधिज्ञान की प्राप्ति में निमित्त कारण है परंतु समानता में नहीं। समानता इसलिए नहीं है कि सबका अपना अपना क्षयोपशम भिन्न भिन्न है। क्षयोपशम कम ज्यादा होने के कारण सभी को ज्ञान भी कम ज्यादा होता है। इसीलिए स्वर्ग (देवलोक) में ज्यों ज्यों ऊपर के देवलोक में जाय त्यों त्यों अवधिज्ञान का प्रमाण बढ़ता जाता है । स्वर्ग तथा नरक के जीवों में जो सम्यक् दृष्टि जीव होते हैं उनका अवधिज्ञान सम्यक् कहा जाता है, तथा जो मिथ्यादृष्टि जीव होते है उनका अवधिज्ञान मिथ्या अवधिज्ञान या विभंगज्ञान के रूप में कहलाता है। इस चित्र में देवलोक का देवता अपने अवधिज्ञान से नीचे तक कुछ नरक पृथ्वी तक स्पष्ट जान सकता है, देख सकता है। सभी नरक पृथ्वी के नारकी जीवों का अवधिज्ञान ऊपर की ओर अपने नरक बिलों के ऊपरी भाग तक है और तिरछे असंख्यात कोडाकोड़ी योजन तक रहता है। तथा नीचे सीमित भिन्न-भिन्न नरक पृथ्वीयों तक रहता है। उसी तरह देवलोक के देवताओं का अवधिज्ञान उपर की ओर अपने अपने विमान के ऊपरी भाग तक-अर्थात् ध्वजा तक रहता है। जबकि नीचे में किसी को पहली नरक पृथ्वी तक, किसी का २री, ३री, ४थी, ५वी, छट्ठी, ७वीं नरक पृथ्वी तक अवधिज्ञान रहता है। तथा तिर्छा असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन तक दिखाई देने वाला अवधिज्ञान होता है इतने क्षेत्र तक के रूपी पुद्गल द्रव्यों को देख सकते हैं। जान सकते हैं। इन्द्रादि देवता का अवधिज्ञान : स्वर्गस्थ-देवलोक में रहे हुए इन्द्रादि देवता गण अपने अपने अवधिज्ञान के बल पर जानते हैं। यहां भरत क्षेत्र की पृथ्वी पर तीर्थंकर भगवंतों का च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान तथा निर्वाणादि कल्याणक होने पर सर्व प्रथम देवलोक के (२०७) -कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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