SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवता इन्द्रादि को पता चलता है। इन्द्र का सिंहासन चलायमान होता है । जिससे इंद्र विचार में पड़ता है, सोचने लगता है, फिर अपने ज्ञान का उपयोग रखने से उसे पता चलता है, ओहो! तीन लोक के नाथ तीर्थंकर भगवान का जन्म हुआ है। अतः भगवान का जन्मोत्सव करने चलें। फिर इंद्र हरिणेगमेषी देव को बुलाकर सुघोषा घंट बजाकर सभी देवलोक के देवताओं को संदेश भेजता है । इन्द्र की सूचना से अनेक देवी-देवता जन्माभिषेक महोत्सव के लिए आते हैं-प्रभु को मेरू पर्वत पर ले जाते हैं और वहां भगवंत का जन्माभिषेक करते हैं। इसी तरह इन्द्रादि देवता भगवान के दीक्षा, केवलज्ञान तथा निर्वाण आदि कल्याणक प्रसंगों को अवधिज्ञान के बल पर जानकर उन उन प्रसंगों पर आते हैं,कल्याणक मनाते हैं। इसी तरह अवधिज्ञान के बल पर जानकर अन्य कई प्रसंगों पर देवता गण आते-जाते हैं। वे प्रवृत्त होते हैं। परंतु नरक गति के नारकी जीव नहीं आ सकते। वे दुःख-त्रास-पीड़ा से संतप्त है। देवता आकर समवसरण में बैठकर देशना श्रवण करते हैं। नंदीश्वर द्वीप में जाकर अष्टान्हिका महोत्सव करते हैं। इस तरह अवधिज्ञान देवताओं के लिए जन्मतः ही उपयोगी होता है। क्षायोपशमिक अवधिज्ञान : . यह अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम विशेष के आधार पर होता है, अथवा तथा-प्रकार के अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से आत्मा के अवधिज्ञान गुण की उत्पत्ति के आधार पर इसी का दूसरा नाम ‘गुण प्रत्ययिक' भी है। गुण निमित्त से जगने वाला ज्ञान । यह भव प्रत्ययिक की तरह जन्म से ही नहीं होता है, तथा किसी भी गति में जन्मजात होने वाला नहीं है। हां, यह अवधिज्ञान सिर्फ मनुष्य गति तथा तिर्यंच गति में ही होता है। परंतु वह भी अवधिज्ञानारणीय कर्म का जितना क्षयोपशम होता है उतना अवधिज्ञान प्राप्त होता है। उसी तरह तिर्यंच गति के पशु-पक्षीयों को भी होता है। पशु-पक्षी भले ही तिर्यंच गति के हों, परंतु वे भी जीव तो है, संज्ञि समनस्क पांच इन्द्रिय वाले पंचेन्द्रिय जीव है। हमारी और उनकी आत्मा समान ही है। कर्म संयोग वश उन्हें पशु-पक्षी का जन्म मिला है। तिर्यंच गति मिली है। संभव है मनुष्य की ही आत्मा या देवता की आत्मा तथाप्रकार के कर्म बांधकर तिर्यंच गति में गई हो। आत्मा वही है। कर्मानुसार देह पर्याय बदलती रही है। अतः ज्ञान आत्मगुण है। न कि देह गुण है, अतः देह को नहीं होता। आत्मा को होता है। और जबकि ज्ञान आत्मा को होता है तो जो भी कोई आत्मा तथाप्रकार के अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम जितने प्रमाण में करेगी उसे उतने प्रमाण में अवधिज्ञान प्राप्त होगा। इस ज्ञान वाला वह जीव अवधिज्ञानी कहलाएगा। चाहे मनुष्य या पशु-पक्षी का जिस किसी का भी शरीर हो। कर्म की गति नयारी (२०८)
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy