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हजार माइल दूर रहने वाला एक परिवार वह भी इनकी सूचनानुसार घर से बाहर निकलकर मैदान में आ गया। देखते ही देखते सिर्फ ४ मिनट बाद भारी भूकंप हुआ और मकान सारा ही धराशायी हो गया । यह आश्चर्य की बात थी कि ४ मिनट के पहले कैसे पता चला? Telepathy यह कहती है दूर बनने वाली घटना का पहले ज्ञान हो जाता है । या कोई दूर से संकेत भेजे, या हमारे विषय में कुछ सोचे विचारे उसका पता चले, ज्ञान हो जाय, कुछ समझ में आ जाय यह Telepathy हैं। मैं जिसके विषय में कुछ सोचता ही था कि उन्हें पता चल गया। मैंने जिसके विषय में विचार किया और वे सामने आकर खड़े रह गए । मैंने जिस विषय में पत्र लिखा कि उसी विषय में सामने से उनका पत्र आया । इत्यादि बनने बाले निमित्तों से मनोभाव का ज्ञान हो जाता है ऐसी कल्पना की जाती है यह ढशश्रशारीिहू के नाम से पहचानी जाती है। यद्यपि मनोभाव के विषय से संबंधित है फिर भी उसे मनः पर्यवज्ञान नहीं कह सकते । मनःपर्यवज्ञान बिल्कुल अलग ही वस्तु है ।
श्रुतज्ञान का स्वरूप :
मतिज्ञान के बाद दूसरा क्रम श्रुतज्ञान का आता है। श्रुतज्ञान को मतिज्ञान पूर्वक ही बताया गया है। सूत्र यह है श्रुतं मतिपूर्व द्वयक द्वादशभेदम् ।।१ - २० ।। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। चूंकि श्रुतज्ञान भी इन्द्रियों की सहायता से होता है श्रवण आदि में श्रवणेन्द्रिय सहायक है, तो शास्त्र पढ़ने आदि में चक्षु इन्द्रिय सहायक है। अतः जो इन्द्रियां मतिज्ञान कारक है वे ही श्रुतज्ञान कारक भी है । अतः मतिज्ञान पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है यह नियम है । वैसे श्रुतज्ञान का सिर्फ 'शब्दार्थअन्वयार्थ लें तो सुना हुआ' ज्ञान इतना ही अर्थ होगा। व्युत्पत्त्यर्थ - श्रुतं श्रौत, श्रवणेन्द्रिय विषयीकृतं, अर्थात् सुना हुआ ज्ञान यह अर्थ जरूर होता है, परंतु शब्द रचना में रूढ अर्थ लेना प्रचलित व्यवहार है । उदाहरणार्थ 'कुशल' शब्द है । व्युत्पत्ति 'कुश को काटने वाला ऐसा शब्दार्थ होता है परंतु यह अभिप्रेत नहीं है । अतः रूढ़ शब्दार्थ लेने से कुशल का चतुर अर्थ होता है। यह गाड़ी चलाने में कुशल अर्थात् चतुर है । उसी तरह श्रुत शब्द का केवल सुना हुआ यह अर्थ लेने से नहीं चलेगा । श्रुत से शास्त्रज्ञान, श्रुतज्ञान, आगमादि शास्त्रों का ज्ञान यह मुख्य अर्थ लिया जाएगा। अच्छा श्रुत का सुना हुआ ऐसा भी अर्थ करें तो भी तीर्थंकर से सुना हुआ ज्ञान जो गणधरों ने शास्त्र में संचित किया है । सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवंतों से अर्थ रूप देशना को श्रवण कर जिन गणधरों ने जो द्वादशांगी रूप शास्त्रों की रचना की है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । आवश्यक निर्युक्ति में कहा है कि -
अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गुंथंति गणहरा निउणा ।
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- कर्म की गति नयारी