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________________ || सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तड़ || आ.नि. अर्थ से तीर्थंकर अरिहंत भगवान देशना देते हैं और निपुण गणधर भगवंत उसे सूत्रबद्ध करके गूंथते हैं। उसके बाद यह सूत्र रूप श्रुतज्ञान शासन के हित के लिए प्रवर्तमान होता है । इस तरह श्रुत से श्रौतं श्रुतं सुना हुआ अर्थ भी लें तो मुख्य सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवंतों से सुनकर जो गणधरों ने शास्त्र बद्ध किया हो लिपिबद्ध किया उस श्रुतज्ञान को यहां श्रुत शब्द से लिया गया है । इसीलिए उमास्वाति वाचकप्रवर ने उपरोक्त सूत्र में श्रुतज्ञान के मुख्य दो भेद कर फिर दोनों के भेद बताएं हैं। - श्रुतज्ञान अंगबाह्य अंगप्रविष्ट अनेक भेद १२ भेद श्रुतज्ञान के मूल दो भेद हैं- एक अंगबाह्य और दूसरा अंग प्रविष्ट । अंग प्रविष्ट आचारांग आदि बारह अंग सूत्रों के भेद से मुख्य १२ प्रकार है । जिसे द्वादशाङ्गी कहते हैं । ये गणधर रचित हैं तथा तीर्थंकर कथित है। ये १२ इस प्रकार है(१) आचारांग (२) सुयगडांग (सूत्र कृतांग) (३) ठाणांग (स्थानांग) (४) समवायांग, (५) विवाह पण्णत्ति (व्याख्या प्रज्ञप्ति या भगवती सूत्र) (६) ज्ञाता धर्म - कथा, (७) उपासकदशांग, (८) अन्तकृत्दशांग, (९) अनुत्तरोपपातिक दशांग, (१०) प्रश्न व्याकरण, (११) विपाक सूत्र तथा (१२) दृष्टिवाद । 1 ये १२ अंग अंगप्रविष्ट के भेद हैं। ये द्वादशांगी कहलाते हैं । ये प्रमुख आगम शास्त्र है । के १४ तथा २० भेदं इस प्रकार गिनाए गए हैं। श्रुतज्ञान श्रुतज्ञान के भेद : -· - चउदसहा वीसहा व सूयं ।। ५ ।। प्रथम कर्मग्रंथ में श्रुतज्ञान के भेद दोनों तरीके से बताए हैं। एक प्रकार से प्रथम १४ भेद होते हैं । दूसरे प्रकार से २० भेद होते हैं । १४ भेंद इस प्रकार से है - अक्खर सन्नी सम्मं साइअं खलु सपज्जवसियं च । गमियं अंगपविट्ठ सत्तवि एए सपडिवक्खा || ६ || इस गाथा में ७ भेद के नाम गिना कर दुसरे उनके विपरीत सप्रतिपक्ष शब्द से अक्षर के ३ भेद है (१) संज्ञाक्षर (२) व्यंजनाक्षर (३) लब्ध्यक्षर । लिए गए हैं । १. अक्षर श्रुत कर्म की गति नयारी २००
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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