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________________ जीव होगा तो वह संतोष से हंसते हुए मृत्यु को महोत्सव मनाता। हंसते हुए यमराज से भेटता । उसे मृत्यु का डर नहीं लगता। जीवन जीने का संतोष महसूस होता-आनंद आता है। अतः एक आत्मा को जानने में जगत के सभी तत्त्वों का ज्ञान उसी में समा जाता है। सभी तत्त्व आत्माश्रयि है। आत्मा न होती तो जगत् में किसी का भी अस्तित्व नहीं होता। आत्मा के ही आधार पर पुण्य-पाप, कर्म-धर्म, स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, पूर्वजन्म, पुनर्जन्म, आश्रव-बंध, संवर-निर्जरा तथा मोक्षादि सभी तत्त्वों का आधार है। अतः एक आत्मा का सही संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने से इन सभी तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान हो जाएगा । मोक्ष क्या है ? आत्मा की चरम विशुद्ध कर्म रहित शुद्ध अवस्था है। जन्म-जन्मान्तर-पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म क्या है? आत्मा ने किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल विपाक भोगने के क्षेत्र हैं, अवस्था है । पुण्य पाप क्या है ? आत्मा ने मन-वचन-काया के योग से की हुई शुभ-अशुभ क्रिया मात्र है। कर्म- . धर्म क्या है? आत्मा ने शुभाशुभ की की हई प्रवृत्ति कर्म है और स्वगणोपासना पूर्वक कर्मक्षयार्थ की हुई प्रवृत्ति धर्म है । स्वर्ग-नरक क्या है ? आत्मा ने शुभाशुभ प्रवृत्ति में जो पुण्य-पाप उपार्जन किये हैं उसके अनुसार कालान्तर में सुख-दुःख भोगने के लिए अनुकूल-प्रतिकूल क्षेत्र विशेष स्वर्ग-नरक है। वहां जाकर उस क्षेत्र में जन्म धारण कर जीव सुख-दुःख भोगता है। सुख-दुःख क्या है? सुख आत्मा का मूल गुण है। अतः आत्मा अनंत सुखावान है। तद् विपरीत उपार्जित किये हए अशाता वेदनीय कर्म के फल स्वरूप जीव को दुःख भोगना पड़ता है। आश्रव-बंध क्या है? जीवात्मा ने ही शुभाशुभ क्रिया जो मन-वचन-काया से की है उसके कारण आत्मा में बाहर से कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं का आकर्षण करने की क्रिया आश्रव है, और उन पुदगल परमाणुओं का आत्म प्रदेशों के साथ एक रस रूप से मिलकर एक होना यह बंध है । संवर-निर्जरा क्या है? उन आश्रव मार्ग के द्वार को बंध करके आत्मा को निष्पाप बनाना यह संवर धर्म है। “आश्रव निरोधो संवरः"। आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मों का तप-त्यागादि धर्म से क्षय करना निर्जरा तत्त्व है । जो कार्मण वर्गणा आत्मा में आई है उन्हें पुनः जर्जरित करके आत्मा में से निकालना यह निर्जरा है। अंत में मोक्ष आत्मा की परमविशुद्ध कर्मावरण रहित सर्वथा शुद्ध, सर्व गुण संपन्न पूर्णावस्था है। उसी पद को प्राप्त आत्मा की अवस्था परमात्मावस्था है । वही शुद्धबुद्ध-मुक्त-सिद्ध-निरंजन-निरकारावस्था जो मुक्तावस्था है, मोक्ष है, उसे ही प्राप्त करना अपना एक मात्र लक्ष बनना चाहिए। यह है आत्म स्वरूप। आत्म ज्ञान । इसी एक आत्म तत्त्व के आधार पर ही सभी तत्त्वों का आधार है अतः ‘जो एगं जाणइ सो सव्वं जाणइ' - जो एक आत्मा को जानता है वह सब कुछ जानता है । वह शास्त्र में (१८७ कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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