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और आत्मा में कोई भेद नहीं है । जीव के परिभ्रमण के लिए संसार में चार गतियां है। जिनको स्वस्तिक से सूचित की गई है। बताए हुए चित्र के अनुसार स्वर्गीय देव गति का जीव अपनी मृत्यु के बाद वहां से च्युत होकर सिर्फ २ ही गति में जाता है एक तो तिर्यंच गति में घोड़ा, गधा, हाथी, ऊंट, बैल, बकरी आदि के जन्म धारण करता है। स्वर्ग अत्यन्त सुखरुप होते हुए भी वह मोक्षस्वरुप नहीं है । जैन दर्शन में स्वर्ग को भी संसार में ही गिना है। स्वर्ग प्राप्त करना कोई बड़ी बात नहीं है। वही सर्वोपरि या सब कुछ नहीं हैं। पशु-पक्षी भी मृत्यु पाकर देवगति में-स्वर्ग में जाते हैं। देव बनते हैं। भगवान महावीरस्वामी ने जिस चंडकौशिक सर्प को 'बुझ-बुझ-चंड़कौशिक!' शब्दों से संबोधित किया वह सांप जागृत हुआ। अंतस्थ चेतना जागृत हो गई, उहापोह से पूर्व जन्म की जाति स्मृति का ज्ञान प्रगट हुआ। अपने ही भूतकाल को देखने लगा। पूर्व जन्मों को देखने लगा। उसे अपने किए हए पाप कर्म आंखो के सामने दिखाई देने लगे, मनुष्य जन्म में से गिरकर मैं आज यहां पशु गति में आया हूं। पापों का पश्चाताप शुरू हुआ है, पश्चाताप की अग्नि में १५ दिन उपवास (पासक्षमण) अनशन करके अशुभ पापकर्म क्षय करके आठवें सहस्त्रार स्वर्ग में गया। .
भगवान पार्श्वनाथ जब गृहस्थाश्रम में थे तब घोडे पर बैठकर नगर के बाहर गए हुए थे। कमठ तापस पंचाग्नि तप कर रहा था उसके जलाए हुए काष्ठों में एक सर्प जल रहा था। अपने ज्ञान से देखकर पार्श्वकुमार ने आज्ञा देकर सैनिक के व्दारा एक जलता हुआ बांस निकलवाया और उसमें से साँप को बाहर निकाला, जो अर्धा तो जल चुका था अर्धदग्ध देहवाले उस सर्प को नमस्कार महामंत्र सुनाया। सांप की चेतना ने शान्ति का अनुभव किया । मृत्यु पाकर देव गति में जाकर नागराज धरनेन्द्र देव बना।
अतः स्वर्ग प्राप्त करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जैन धर्म ने देवगति-स्वर्ग को इतना ज्यादा महत्त्व नहीं दिया है जितना वैदिक परम्परा ने दिया है। अतः देवगति भी संसार चक्र की चार गतियों में से एक है। वहां भी जन्म-मरण
आदि सतत है। देवगति से अक्सर मृत्यु पा कर ९०% देवताओं के जीव तिर्यंचपशु-पक्षी की गति में जाकर जन्म लेते हैं।
एक स्वर्गीय देव जो मनुष्य लोक में तीर्थ-यात्रा करने निकला था, कि उसने पर्वतमाला की गुफा में एक ज्ञानी मुनि महात्मा को देखा । वहाँ जाकर वंदननमस्कार कर बैठा । तपस्वी मुनिराज अपनी ध्यान साधना समाप्त करके बैठे थे। देव ने पूछा- “हे भगवन् ! कृपा करके मेरी आगामी गति क्या होगी? वह बताइए।" महात्मा ने अपने ज्ञान के उपयोग पूर्वक देख कर बताया कि “हे देव! देव भव से मृत्यु के बाद तुम्हारी तिर्यंच गति होगी। तुम तिर्यच गति में जाकर बन्दर की योनि में
- कर्म की गति नयारी