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चार गति में गमनागमन :
जैन धर्म में स्वस्तिक एक मंगल चिह्न के रुप में माना गया है। अष्ट मंगल में वह पहला मंगल है। मंदिर में, अष्ट प्रकारी पूजा में स्वस्तिक बनाकर प्रभु के समक्ष प्रार्थना की जाती है कि हे प्रभु ! मैं इस चार गतिरूप संसार के परिभ्रमण से कैसे बचुं ? मृत्यु के बाद देह छोड़कर जीव एक गति से दूसरी गति में जाता है । ऐसी ४ गतियां है ( १ ) मनुष्य गति (२) देव गति (३) नरक गति और (४) तिर्यंच गति । इन चारों गति के जीवों के निवास स्थान के क्षेत्र रूप में तीन लोक है। तीन लोक स्वरूप इस समस्त ब्रह्मांड का परिमाण १४ रज्जु लोक प्रमाण होने से इसे चौदह राजलोक कहते हैं, इसी में समस्त जीव राशि सन्निहित है ।
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संसार चक्र :
संसार क्या है ? क्या संसार किसी वस्तु या पदार्थ विशेष का नाम है ? या क्या किसी चिडिया का नाम है ? क्या हाथ में लाकर हम वस्तु दिखाकर कह सकते हैं कि इसका नाम संसार है ? नहीं, संसार जीव के परिभ्रमण को कहा जाता है। चार गतिरूप यह संसार है जिसमें जीवों का परिभ्रमण सतत होता रहता है । जिस तरह एक तैली के यहां कोल्हू का बैल घूमता रहता है, आंख पर पट्टी बंधी हुई और गोल-गोल घूमता रहता है । उसी तरह जीव एक गति से दूसरी, दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी इन चारों गति में घूमता रहता है। यही जीव का संसार है। अतः संसारी जीव का लक्षण करते हुए पू. हरिभद्रसूरि महाराज ने 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' ग्रंथ में कहा है कि
यः कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्म फलस्य च । संस परिनिर्वाता सह्यात्मा नान्यलक्षणः ।।
जो कर्म का कर्ता है और किए हुए कर्म के फल को भोगने वाला है, संसार में सतत जो घूमता रहता है, वही जीव है । यही आत्मा का लक्षण है, सृ गतौ धातु से संसार शब्द निष्पन्न हुआ है, अर्थात् सतत गतिशील जो है वह संसार है । संसरणशील संसार है । बहती हुई नदी का प्रवाह भी सतत गतिशील है उसे संसार नहीं कहा, परन्तु जहां सतत जीवों का संसरण होता है वह संसरणशील संसार है। सर्पाकार वक्रगति से जीव ऊंची-नीची गतियों में सतत भटक रहा है। न तो कोई उद्देश है और न कोई लक्ष्य । लक्ष्यहीन रूप में कोल्हू के बैल की तरह सिर्फ चारों गति में घूमता है ।
एक गति से दूसरी गति में :
स्वस्तिक के केन्द्र में जीव है। जैन दर्शन में जीव और आत्मा ये दोनों ही पर्यायवाची शब्द है। जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही जीव कहा गया है। जीव
कर्म की गति नयारी
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